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लौटता मजदूर,मेहनत से थक कर चूर
घर खाततर घर से दूर,खुद को पाता मजबूर
कब बदलेगा ये बना हुआ दस्तूर
एक शाम,काम से लौटा है मजदूर
काम माांगते दो हाथोां को, काम ना तमलता
तानोां की खाकर चोट, हृदय का तहस्सा तिलता
पलकोां पर थामे धूल,तरक्की को चमकाते
मेहनत ज्यादा, कर में पगार पर कम ही पाते
क्या हुआ,जो बीती रात में रोटी कम खाई थी
क्या हुआ,जो कल की सोच आँख भी भर आई थी
रूखे-चेहरे ,कतरन-कतरन मुसकाने तसलता
तमलता कुि ना बस अपनोां का ढाांढस ही तमलता
झोपड़-पट्टी के स्वेद से होते तनमााणोां में
ताकत के दम पर तिने हुए,सब अतधकारो में
खोज रहे अस्तस्तत्त्व स्वयां का कहाँ तमलेगा ?
मैले मे डूबा या मलबे में दबा तमलेगा
एक वगा यहाँ पर कब तक कुचला जाएगा ?
काम के सांग सम्मान भी वो क्या पाएगा ?
कुदाल-दराँती ने अब तक जो भी है भोगा
तहसाब कहाँ उसका कब और कैसे होगा
अब धारण करके ज्ञान,तजे अज्ञान का चोगा
गर कुि होगा कर कलम-तकताबोां से होगा
सूखे पन्ने स्याही तघसती एक कलम,
तशक्षा भी जब रखे उनके साथ कदम,
तब समाज का ये तबका उठ पाएगा,
अतधकारोां का मोल जान वो पाएगा,
मजदूर सही,मजबूर ना हो इतना ही हो जाए बस
मजदूर सही,मजलूम ना हो अपने हक़ का पाए बस॥

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