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मोर बिन
पर वाला कहीं
दिख ही गया यूं ही
जालियों से
खिड़कियों की
ना थी सलाखें
पर हाँ थी
उस पर जमी
सुविधा परत
ताकती सी
नजर भर
उस मोर के
छोड़े गए पर,
पर निगाहे
जा रुकी
रखा उन्हीं में से
कोई एक पर कहीं
दर्पण के पीछे
भीत से सटकर
नृत्य मुद्रा
में ना होकर
जड़ सा ही
या कहीं एक
बांसुरी की तान
पर ग्वाला कहीं
सिर पंख टाँगे
नहाती नारियों के
वस्त्र कर वापिस
उसी युग में कहीं
कोंतेय को जा
सीख देता
भागवत की।
पर-पर मिले
मिलकर बंधे
और किसी
माँ के गूँथे
हाथपंखे में
जा जुड़कर
हिल और डुलकर
पैदा करते
बयार सुख की
और सुकून की
नन्ही सी
एक जान
खातिर
जो इसी युग का
बिरसा बन
डट जाए
और बन जाए
ईश्वर किसी
जनजाति का।
कहीं डूब स्याही
नीली में
एक पर
सूखे सफहों
पर फिसल कर
लिख जाता
उठते स्वर
गिरता स्तर
मानवता का
जिसका होना
आजकल
उतना ही मुश्किल
जितना दीवारों
बीच में
एक घर का होना।
एक पर
कहीं बैठ
किसी पुस्तक
में जा बनता
पृष्ठ स्मृति
जो याद दिलाए
भूल से
छोड़ा हुआ
कोई काम
आशा को लिए
पूरा होने की
जल्द ही
शुरुआत
की ले सींक
उठ बैठ कर
चुभो देगा
आलस भरी
उस नींद में।
झाड़ू बन कर
मोर पर
फैला धुए से
मिंचती
आँख में जा
धूल झोंके
और दमड़ी
चाह में
हिला उसको
झाड-फूंके
दे-दे- बच्चा
अरमा सच्चा
ख्वाब कच्चा
झोली भर
फिर चल पड़ेगा
मंत्रोच्चार कर
और क्रुद्ध होकर
शांति का
प्रचार करने।
एक पर
छोड़ा हुआ
उड़ कर
गिरा उन
नन्हें नंगे
पैरों में
थामे हुए
कंधे पे झोला
और बोझ
किस्मत का
भी कह लो
फटे लत्ते
फटी एड़ी
चिरी पिंडली
देख कर
रंगो को
गोलाकार
हाथों में
ले वो पर
घुमाता
मानो उसने
पा लिया हो
विश्व रूपी
ताज कोहिनूर
जिसको छीन
गोरे दासता में
कैद करके
खुद की ही
शेख़ी बघारे
वो पर
उसे मिलकर
उसकी हार
हर कर
जीत की
अनुभूति देता
और उसके
हाथ में
हिल कर लहरता
मानो करे नृत्य
कहीं कोई मोर
बरखा आस में
उसकी तरह॥

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