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रोशनी से धुंध टकराती रही
जिंदगी यूंहि चली जाती रही
छांव ना,पर छांव जैसी धूप में
मृगतृष्णा झील बन आती रही
हालात के सिलबट्टे पर जा पिस गए है
छानकर जो खाक चप्पल घिस गए है
गुम हो चुकी चिल्लाहटों में चुप्पी में
दबकर हंसी, हँसकर दबी जाती रही
वक़्त ने फिर से बाजी मारी
पर क्यों निकली धार खारी
गिर पड़े है घोंसले पर हौसले ना
बैठता फिर से जा पंछी पेड़ डारी

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