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पंडित दीनदयाल उपाध्याय

भारतीय संस्कृति का झुकाव हमेशा से प्रकृति के तरफ रहा है. भारतीय संस्कृति में मूर्ती पूजा के साथ साथ प्रकृति में उपलब्ध पेड़-पौधों, पशुओं, सांप आदि की भी पूजा की जाती रही हैं. यहाँ तक की सामाजिक समझौता सिद्धांत के प्रखर समर्थक जे जे रूसो ने भी प्रकृति की और लौट चलो का नारा दिया. भारत के राष्ट्रपिता माहात्मा गाँधी ने भी ग्रामीण जीवन में प्रकृति के प्रति जुड़ाव को बनाये रखने के लिए अपने आदर्श गाँव की कल्पना की. इसमें सर्वोदय के सिद्धांत के माध्यम से सभी के उदय की कल्पना की गयी हैं.

वर्तमान समय में कोरोना महामारी ने मनुष्य को बता दिया हैं कि वह अभी भी प्रकृति के सामने कितना बौना, कितना अज्ञानी हैं. एक छोटे से विषाणु ने पूरी मानव जाति को अपने घरों में बंद रहने को मजबूर कर दिया हैं. इसने फिर से मनुष्य को यह सोचने के लिए मजबूर किया हैं कि यदि मनुष्य प्राकृतिक नियमो का पालन नहीं करेगा तो इसके क्या परिणाम हो सकते हैं. असम व बिहार के हालात हम सभी के सामने हैं. किस तरह से मानवजाति बाढ़ से प्रभावित हुई है, ये किसी से छिपा नहीं हैं.

दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद के माध्यम से मनुष्य व प्रकृति के मध्य संबंध को समझाने का एक वैज्ञानिक प्रयास किया हैं जिसमें उन्होंने बताया कि कैसे मनुष्य, परिवार, समाज, देश, विश्व, ब्रह्माण्ड आपस में एक दूसरे से जुड़े हुए हैं. इसी के आधार पर दीनदयाल उपाध्याय ने पूंजीवादी व साम्यवादी विचारधारों की आलोचना की.

वर्तमान समय में जब पूरी दुनिया कोरोना जैसी भयानक बिमारी से जूझ रही हैं तो ऐसी परिस्थिति में प्रकृति के प्रति मानव द्वारा किया गया शोषण एक सावलिया निशान खड़े करता हैं.

एकात्म मानववाद मानव जीवन व सम्पूर्ण सृष्टि के एकमात्र सम्बन्ध का दर्शन है. यह सिद्धांत प्रकृति व मनुष्य में एक संबंध स्थापित करता हैं. यह मांग करता हैं कि व्यक्ति को अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने हेतु प्रकृति के संसाधनों का प्रयोग करना चाहिए. महात्मा गाँधी ने भी स्पष्ट शब्दों में कहा था, "प्रकृति मनुष्य की जरूरतों को तो पूरा कर सकती हैं लेकिन लोभ द्वारा उत्पन्न इच्छाओं को कभी पूरा नहीं कर सकती." यही तो एकात्म मानववाद भी कहता हैं. हमें आवश्यकता के अनुसार प्रकृति से उतना ही लेना चाहिए जितने की आवश्यकता हैं. बाकी सब अन्य के लिए छोड़ देना चाहिए.

यदि सतत विकाश लक्ष्यों(Sustainable Development Goals) के 12वें लक्ष्य को देखें तो यह एकात्म मानववाद के सिद्धांत के बहुत करीब दिखाई पड़ता हैं, जिसमे जिम्मेदारी के साथ उपभोग व उत्पादन(Responsible Consumption and Production) का लक्ष्य रखा गया हैं. इस बात से यह प्रामाणित होता हैं कि दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानावाद का विचार वर्तमान में भी कितनी प्रासंगिक हैं.

एकात्म मानववाद के केंद्र में व्यक्ति, परिवार, समाज, फिर राष्ट्र, विश्व और फिर अंत में ब्रहमांड समाविष्ट है. सभी एक-दूसरे से जुड़कर अपना अस्तित्व साधते हुए एक दुसरे के पूरक एवं स्वाभाविक सहयोगी है. इनमे कोई संघर्ष नहीं है. यधपि इन सभी का अपना एक स्वतंत्र अस्तित्व हैं लेकिन उसके बावजूद इन सभी में एकात्मकता का भाव पाया जाता हैं जो इन्हे एक दूसरे के प्रति एकात्मक बनता हैं.

व्यक्ति का अपना एक स्वतंत्र अस्तित्व है, लेकिन वह समाज से अलग नहीं रह सकता. समाज परिवार से मिलकर बनता हैं. इसीलिए व्यक्ति के अस्तित्व हेतु परिवार आवश्यक हैं. ठीक इसी तरह परिवार का अपना एक स्वतंत्र अस्तित्व हैं लेकिन परिवार की मूलभूत आवश्यकताएं समाज से ही पूरी होती हैं. इसी प्रकार अन्य सभी एक दूसरे से जुड़े होते हैं.

एकात्म मानववाद एक ऐसा सिद्धांत हैं जिसे दीनदयाल उपाध्याय ने बद्रिशाह टुल्धारिया द्वारा लिखित पुस्तक “देशिक शास्त्र” से लिया हैं. इस पुस्तक में उन्होंने भारतीय संस्कृति की उन विशेषताओं को बताया जिसके अनुसार भारतीय संस्कृति में यह माना जाता हैं कि व्यक्ति व समाज दोनों एक दूसरे के पूरक हैं.

दीनदयाल जी का मानना था कि पाश्चात्य चिंतन उपभोगतावाद पर आधारित है जिसके केंद्र में व्यक्ति है. उपभोगतावाद की दौड़ ने आज हमें जहां पहुंचा दिया है, वहां से लौटना संभव नहीं है. उपभोगतावाद ने पाश्चात्य समाज को भी अराजकता की स्थिति में पहुंचा दिया है. समाज बिखर रहा है, परिवार टूट रहे हैं, वृद्धावस्था आश्रम बन रहे हैं. अब वहां विशेषज्ञ रिसर्च पेपरों में विश्लेषण कर रहे हैं. उनका समाजवाद उपभोगवाद में उलझ कर रह गया है. इससे बाहर निकलने का कोई रास्ता फिलहाल नजर नहीं आ रहा है.

इसी प्रकार मार्क्सवादी व वामपंथी विचारधारा ने समाज व देश का अहित ही किया हैं. दीनदयाल उपाध्याय ने इसके प्रति भी सावधान किया था. इसमें उपभोगतावाद को सशर्त बनाया गया था. चीन में वही कम्यूनिस्ट व्यवस्था केवल राजनीति व सत्ता पर नियंत्र और एकाधिकार के लिये बची है. आर्थिक क्षेत्र में वहां उपभोगतावाद चरम पर है.

एकात्म मानववाद नहीं एकात्म मानवदर्शन

पहली बात यह समझनी होगी कि अन्य विचारों के भांति दीनदयाल उपाध्याय ने कोई वाद नहीं बनाया. एकात्ममानव दर्शन, अन्त्योदया आदि जैसे विचार वाद की श्रेणी में नहीं आते, यह दर्शन है. यह हमारी ऋषि परंपरा से जुडा हुआ है. इसके केंद्र में व्यक्ति या सत्ता नहीं है. जैसा कि पश्चिम या वामपंथी विचारों में कहा गया है. इसके विपरीत एकात्ममानव दर्शन में शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा सभी का महत्व है. प्रत्येक जीव में आत्मा का निवास होता है.

भारतीय संस्कृति में आत्मा को परमात्मा का अंश माना जाता है. यह एकात्म दर्शन है. इसमें समरसता का विचार है. इसमें भेदभाव नहीं है. व्यक्ति का अपना हित स्वभाविक है लेकिन यही सब कुछ नहीं है. उपभोगवाद से लोक कल्याण संभव नहीं है. इसमें व्यक्ति का भी कल्याण नहीं है. यदि ऐसा होता तो भौतिकवाद की दौड़ में कभी तो व्यक्ति को संतोष मिलता. लेकिन ऐसा नहीं होता दिख रहा हैं.

व्यक्ति एक इकाई मात्र हैं. व्यक्ति परिवार का एक हिस्सा भी है. परिवार का हित हो तो व्यक्ति अपना हित छोड़ देता है. समाज का हित हो तो परिवार का हित छोड़ देना चाहिये. देश का हित हो तो समाज का हित छोड़ देना चाहिये. जिस प्रकार व्यक्ति के अपने मन बुद्धि शरीर और आत्मा होते हैं उसी प्रकार समाज के भी मन बुद्धि शरीर आत्मा होते है. यदि व्यक्ति के हित में और समाज के हित में टकराव हो तो ऐसी परिस्थिति में व्यक्ति और समाज दोनों का हित हो सके इस प्रकार का निर्णय लिया जाना चाहिए. यही वास्तव में व्यक्ति और समाज में एकात्म का भाव हैं जिसे दीनदयाल जी ने एकात्ममानव दर्शन की संज्ञा दी हैं.

एकात्म मानवदर्शन के अनुसार मानव जीवन का लक्ष्य भौतिक मात्र नहीं है. जीवन यापन के साधन अवश्य होने चाहिए लेकिन यह भी ध्यान रहे कि ये साधन हैं, साध्य नहीं है. चारो पुरुषार्थो, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का विचार ध्यान में रखते हुए केवल व्यतिगत इच्छाओं को ही तृप्त करना जीवन का उद्देश्य नहीं होना चाहिए. समाज के कल्याण की भी कामना करना आवश्यक हैं. ये ही तो चार पुरुषार्थो का उद्देश्य हैं.

सभी कार्य धर्म से प्रेरित होने चाहिये. अर्थात लाभ की कामना करते हुए समाज के शुभ की भी चिंत्ता करनी होगी. पाश्चात्य चिंतन इच्छाओं को बराबर बढ़ाने और आवश्यकताओं की निरंतर पूर्ति को अच्छा समझता है. इसमें मर्यादा का कोई महत्व नहीं होता. उत्पादन सामग्री के लिये बाजार ढूंढना या पैदा करना अर्थनीति का प्रमुख अंग है लेकिन प्रकृति की मर्यादा को नहीं भूलना चाहिये.

प्रकृति के साथ अनावश्यक दुर्व्यवहार न हो इस उद्देश्य से मानव प्रगति करे, कोरोना वायरस के इस कठिन समय में हमें यही सीख मिलती हैं.

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