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वर्षों से तिनका-तिनका कर,
बुनी थी जिसे मैं।
पेड़ की डाली पर बैठ,
गाया करती थी मैं।
जब,सूर्य लालिमा बिखेरते आसमां में,
चीं -चीं कर जगाया करती थी, उस समय।
कभी नीले गगन में उड़ के,
कभी अपने बच्चों के संग,
चीं-चीं कर संदेश देती थीं मैं।
हर पल रखवाली करती खेतों की,
यही थीं,गलती हम सब की।
मैं मानती रही ,दुनिया को परिवार।
तुम अपने स्वार्थों में खोए थे।
जो छाया बिखेरा करता था।
आज गिर रहे हैं, जमीन पे।
घोंसले थे, जिनमें कभी।
अब, ज़मीन पे पड़े थे।
लोगों का भाषण अमृत सा
माहुर की प्याली हमें दे रहे थे।
जिसमें इंसानियत ही नहीं,
इंसानियत की यूं बात कर रहे थे।
तड़पते रहे बेघऱ हो कर,
पिंजरे में रख कर, इंसानियत दिखा रहे थे।
क्यों इंसान इतना गिर गए?
हमारा घर छीन के, खुद का घर बना रहे।
आज भी मैं शांत हूँ, क्षण भर की खुशी में।
जी रही हूँ, आज भी इंसानियत की आस में।

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