Picture by Nishtha Ranjan

हम अक्सर एक इंसान में अपना घर ढूँढते हैं, पर मैंने इस अनजान शहर में अपना आशियाना बना लिया था। दिल्ली से विदाई लिए मुझे कुछ हफ़्ते ही हुए है, पर उसकी यादें मेरी बचपन कि यादों के साथ कही घुल मिल गयी है। दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने का सपना तो मैंने पूरा कर लिया, पर हास्य की बात तो ये है कि विश्वविद्यालय तो दूर, कभी किताबों के पन्ने भी पलट कर नहीं देखे। दिल्ली में की हुई दोस्ती और पुरानी दिल्ली कि गलियों में कब खो गयी पता ही नहीं चला। वक़्त बीतता गया, और हम बड़े हो गए। ये तीन साल जो इस शहर ने मुझे दिया है, इसके हर लम्हे को मैं अपने दिल के सबसे क़ीमती घरौंदे में रखूँगी। आख़िर, जिस शहर ने मुझे घर दिया, वो शहर भी तो एक घर के योग्य है।

दिल्ली कि हवा तो जनाब आप भी जानते है कितनी ही बदनाम है। इस हवा में साँस लेने में थोड़ी मशक़्क़त तो करनी पड़ती, पर चलिए, जिस दिल्ली ने मुझे इतना कुछ दिया, उसके लिए इतनी मुश्किल उठाना तो जायज़ है। पर इस हवा में प्रदूषण जितनी भी हो, नशा भी उतना ही है।

एक बार दिल्ली में इश्क़ हुआ मुझे, और कई बार दिल्ली से। और यक़ीन मानिए, दिल्ली ने मेरा दिल कभी नहीं तोड़ा। वहाँ का अकेलापन भी मुझे भा जाता था। ये दिल्ली मेरे दिल के तालों कि चाबी बन गयी और धीरे-धीरे मेरी हर राज़ जान गयी।

याद है मुझे, कितने ख़ौफ़ के साथ मैं इस अजनबी शहर में अपने लिए एक जगह ढ़ूनढ़ रही थी। इस सोच में उलझी हुई थी कि ये शहर मुझे अपनाएगा या नहीं। कुछ वक़्त लगा ये समझने में कि इस जगह की बाहें कितनी फ़ैली हुई है। इतना प्यार है इस शहर में कि जितना लूट ले कोई, उसका दुगना ये अपने दामन में भर लाती है। इस शहर के क़ुरबत होना बेखटक ही एक इनायत है।

कन्नौट प्लेस में बैठ के शाम से रात होते देखना हो या खान मार्केट में फ़क़ीर चंद जाके फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ कि किताब ख़रीदनी हो, हर पल में कितनी ख़ुशी भरी पड़ी थी कि इस अहसास को महज़ शब्दों में दर्शाना मुश्किल है।

Picture by Nishtha Ranjan

दिल्ली के हर कोने को मैंने तस्वीरों में क़ैद कर रखा है, और हर तस्वीर में एक कहानी छुपी है। हर कहानी के किरदार मेरे दिल से उतने ही जुड़े हैं, जितना कि हर कहानी की अहम किरदार दिल्ली जुड़ी हुई है। यहाँ बनाए दोस्त भी जब गले लगाते थे, तो लगता था कि जैसे जीवन का एक टुकड़ा उस लम्हे में बस गया है। इस दोस्ती में जामा मस्जिद के शाही टुकड़े से ज़्यादा मिठास है। बस यही दुआ है कि जब भी पीछे मुड़के देखूँ, ये लम्हे केवल मुस्कुराहट का स्त्रोत बने।

सरोजिनी नगर तो जनाब एक बुरी आदत जैसी थी। जितनी दूर मैं भागती, ये उतना ही मुझे अपने पास खींच लाती। सरोजिनी से कपड़े ख़रीदने की तो जैसे लत ही लग गई थी। यस लत ऐसी थी की फिर बड़े दुकानों में जा के कपड़े ख़रीदने का जी ही नहीं करता था। और सरोजिनी के लिए ऐसा प्यार सिर्फ़ मुझे नहीं, शायद दिल्ली में रहने वाली हर लड़की को है। जब भी घर से पैसे आते थे, सरोजिनी नगर के सपने देखने शुरू कर देती थी मैं।

दिल्ली मेट्रो कि सैर भी कितनी निराली थी। ये तीन साल तो यही मेट्रो के पीछे भागते-भागते गुज़र गए। इसकी भी एक अलग ख़ूबसूरती थी। गर्मी में हाय-हाय करते जब मेट्रो में चढ़ती थी तो जन्नत से कम नहीं महसूस होता था। ‘यह राजीव चौक स्टेशन है, यहाँ ब्लू लाइन के लिए बदले’; ‘कृपया, दरवाज़े से दूर हटकर खड़े रहे’। याद करते हुए एक हँसी सी आ गयी। अब तो ये यादें भी मेरे कानो में संगीत जैसी गूँज रही हैं। याद आते है वो दिन जब मेट्रो में बैठने के पहले कम से कम दो लोगों से पुष्टि करती थी, कि ये ट्रेन मेरी मंज़िल की ही तरफ़ जा रही है या नहीं। फिर देखते ही देखते ऐसा समय आ गया कि लोग मुझसे पुष्टि करने आने लगे।

रात को मेट्रो कि खिड़की से बहार गाड़ियों को तेज रफ़्तार में आते-जाते देखने पर लगता था जैसे शहर नूर से भर गया हो।

दिल्ली तकनीकी रूप से विकसित ज़रूर हुआ है, पर इसके कई हिस्सों में उतनी ही रुहानियत क़ैद है। मुग़ल वंश और दिल्ली सल्तनत तो नहीं रहे, पर उनकी छोड़ी हुई विरासत को दिल्ली ने बहुत सम्भाल के रखा है। लाल क़िला, हुमायूँ का मक़बरा और क़ुतुब मिनार उन कई स्मारकों में से एक है जो इस शहर कि रूह को आज भी ज़िंदा रखी है। मुझे यक़ीन है कि आज से हज़ारों वर्ष बाद भी दिल्ली ऐसे ही अपने इस हुस्न को बेक़रार रखेगी।

Picture by Nishtha Ranjan

देखिए जनाब, अब ये भी मिथ्या ही होगी अगर मैं बोलूँ कि दिल्ली में सिर्फ़ ख़ुशियाँ ही मिली मुझे। ग़म भी कई मिले। धोखा भी खाया। कई बार भीड़ में खुद को अकेला भी पाती थी मैं। पर कुछ सीख मिली मुझे इससे। यह सीखा कि भीड़ में कोई कभी अकेला नहीं होता। और अगर ग़म बाँटने जाओ, तो उस भीड़ में कोई ना कोई तो तुम्हारा हाथ ज़रूर थामेगा। तुम कभी खुद को तनहा मत समझना क्यूँकि हर कोई उस भीड़ में उतना ही भ्रांत है जितना कि तुम। इस व्याकुलता में खुद कि ताबीर समझने कि कोशिश करोगे तो ज़रूर समझ जाओगे।

दिल्ली में मिली आज़ादी प्यारी थी। वह निडर भाव भी दुर्लभ था। ऐसा लगता था, मानो इस दिल्ली ने मुझे जीना सिखा दिया। इसने मेरे लड़खड़ाते पैरों को मज़बूत बनाया। अब डर नहीं लगता ये सोच के कि आगे मंज़िल क्या से नए रास्ते लाएगी। एक भोले शहर ने मुझे मुझमे यक़ीन करना सिखाया है। दिल्ली मेरी वह शिक्षिका थी जिसने डाँटते और हस्ते हुए मेरा हौसला अफ़ज़ाई किया। दिल्ली से विदाई हुई है, जुदाई नहीं। इस दिल्ली को दिल में बसा के रखने का इरादा है। दिल्ली को मेरा ये वादा है, जहां जाऊँगी, दिल्ली कि चमक छोड़ जाऊँगी। और दुनिया के किसी कोने में भी रहूँ, इस ख़्वाबीदा दिल्ली के पास ही वापिस आऊँगी।

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