मानव को ईश्वर की सर्वोत्तम कृति कहा जाता है। चौरासी लाख योनियों में एक मानव ही ऐसा है जिसने न केवल प्राकृतिक संसाधनों का भरपूर उपयोग किया बल्कि नई-नई खोजों एवं अनुसंधानों के माध्यम से अपने जीवन को सरल एवं सुगम बनाने का मार्ग भी प्रशस्त किया है। मानव ने समय-समय पर अन्य प्राणियों पर अपनी श्रेष्ठता का परिचय देते हुए इस संसार में स्वयं को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध किया है।
इस संपूर्ण सृष्टि में मानव के सर्वोत्तम होने के बावजूद प्रायः मानव को भाग्यवादी के रूप में देखा जाता है। इस संसार में एक आम धारणा है कि मनुष्य को अपने भाग्य से अधिक और समय से पूर्व कभी कुछ नहीं मिलता। यही कारण है कि हम में से अधिकांश व्यक्ति स्वयं को भाग्य के अधीन मानकर कर्म के मार्ग से विचलित हो जाते है किंतु यह स्थिति मानव के लिए अनुकूल नहीं कही जा सकती क्योंकि मानव जीवन का तो दूसरा नाम ही कर्मशील होना है। ऐसे में केवल संयोग के नाम पर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना मानव के लिए कदापि उचित नहीं कहा जा सकता।
वास्तव में भाग्य और कर्म का किसी विशेष वर्ग, जाति, भाषा और लिंग से नहीं, बल्कि चराचर प्राणी जगत से संबंध है। मनुष्य जैसे ही पंचतत्वों से बने इस शरीर को लेकर माँ के गर्भ से बाहर निकलता है, उसका कर्म आरम्भ हो जाता है। यह कार्य तब तक चलता रहता है, जब तक इस धरती पर वह अन्तिम श्वास लेता है। इसलिए मानव जीवन को कर्मक्षेत्र कहा जाता है। मानव की जीवंतता उसके चलते रहने में, उसके कर्मशील बने रहने में ही है। इसीलिए जीवन की तुलना गाड़ी से की जाती है। इस कर्मक्षेत्र में कर्म के फल से ही जीवन में सुख-दुःख आते हैं। कर्म का फल यदि सुखद हो तो सुख की अनुभूति होती है, दुःखद हो, निराशाजनक हो तो दुःख की अनुभूति होती है। लेकिन हम सबके जीवन में अक्सर ऐसा भी होता है, जब कर्म अच्छा किया हो और उसका परिणाम या फल वैसा न मिला हो। कर्म के अनुकूल फल न मिलने और उसके अधिक या कम मिलने पर- दोनों ही स्थितियों में हम भाग्य का नाम लेते हैं। इसीलिए कर्मफल और भाग्य ऐसे विषय हैं, जिनके बारे में जानने के लिए हर व्यक्ति सदा आतुर रहता है।
भाग्य वह घटना और विश्वास है जो असंभव घटनाओं के अनुभव को परिभाषित करता है, विशेषकर असंभव रूप से सकारात्मक या नकारात्मक घटनाओं को। वस्तुतः भाग्य एक व्यक्तिगत आकस्मिक घटना को समझने का तरीका है। भाग्य के तीन पहलू हैं- (1.) भाग्य अच्छा या बुरा होता है, (2.) भाग्य संयोग या संयोग से होता है और (3.) भाग्य किसी व्यक्ति या लोगों के समूह पर लागू होता है।
हिन्दू धर्म के अनुसार हर जीवित प्राणी में एक आत्मा होती है और भगवद्गीता के अनुसार, यह आत्मा कभी नहीं मरती तथा पुनर्जन्म लेती है। एक जन्म में रहते हुए, आत्मा अच्छे और बुरे कर्मों में लिप्त होती है। अगले जन्म में आत्मा का पुनर्जन्म उसके पिछले जन्म के कर्मों की गुणवत्ता और भार से निर्धारित होता है। यह कथन स्पष्ट करता है कि मानव जाति में पुनर्जन्म भी भाग्य की बात है। यह उसके पिछले जन्मों के संचित कर्मों पर निर्भर करता है।
गीता हमें बताती है कि भाग्य की बेहतरी के लिए प्रयास आवश्यक हैं। कई लोग कहते हैं कि मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है और गीता के श्लोक भी निरंतर प्रयास करने का ही संदेश देते हैं।
महाभारत में भगवान कृष्ण ने निम्नलिखित शब्द कहे थे जो अत्यधिक प्रासंगिक हैं- “भाग्य और मानव प्रयास एक दूसरे पर निर्भर करते हैं। उच्च विचार वाले अच्छे और महान कार्य करते हैं।"
यही संदेश रॉबर्ट कोलियर के इस उद्धरण में परिलक्षित होता है- “हम सभी की नियति बुरी और अच्छी किस्मत वाली है। जो आदमी बुरी किस्मत के बावजूद भी डटा रहता है और आगे बढ़ता रहता है, केवल वही आदमी अच्छी किस्मत आने पर मौजूद रहता है और उसे प्राप्त करने के लिए तैयार रहता है।"
नियति के प्रति दो दृष्टिकोण हैं - एक भाग्यवादी जो मानता है कि सब कुछ भाग्य और किस्मत पर निर्भर है। यह एक चुनौतीपूर्ण तरीका है क्योंकि यह आपको अपने सपनों पर काम करने के लिए बहुत कम नियंत्रण और प्रेरणा देता है। दूसरा पक्ष वह है जो अपने पास मौजूद हर चीज़ के साथ अपने लक्ष्य का पीछा करता है। इस उद्धरण में - भाग्य पसंद का मामला नहीं है, यह सब उस चीज़ के लिए लड़ने के बारे में है जिस पर हम वास्तव में विश्वास करते हैं ताकि हम अपनी दृष्टि को प्राप्त कर सकें।
शब्द "संयोग" या अपने पर्यायवाची रूप में किस्मत या भाग्य का प्रयोग यह बताने के लिए किया जाता है कि किसी घटना के घटित होने का अवसर बन रहा है। कई बार "संयोग" का उपयोग विशेष रूप से सकारात्मक या इच्छित घटना या किसी प्रकार के लाभ को प्राप्त करने के लिए किया जाता है। मुख्य प्रश्न यह है कि क्या सब कुछ संयोग से घटित होता है? यदि ऐसा होता है, तो कोई किसी के भाग्यशाली या अभाग्यशाली होने की बात कर सकता है। परन्तु यदि सब संयोग से घटित नहीं होता, तो उन शब्दों का उपयोग करना अनुचित है।
ऐसा माना जाता है कि भाग्य ईश्वर द्वारा निर्धारित होता है और जिसके भाग्य में जो लिखा होता है, वही होता है। वास्तव में अगर हम इसी अर्थ में भाग्य को मान लें तो फिर कर्म और प्रतिफल की पूरी व्यवस्था ही बाधित हो जाएगी। अगर हर व्यक्ति के साथ वही होता है जो उसके भाग्य में है तो फिर उसका अपना अधिकार, उसके होने का अर्थ ही समाप्त हो जाएगा और वह कठपुतली की भांति हो जाएगा।
जीवन में कुछ बातें या घटनाएं संयोगवश हो सकती हैं। लेकिन आप अगर इस इंतजार में रहेंगे कि सब कुछ अपने आप ही हासिल होगा, तो शायद आप जिंदगी भर इंतजार ही करते रह जाएंगे, क्योंकि संयोग हमेशा तो नहीं हो सकता। जब तक आप किसी संयोग का इंतजार करते रहेंगे, आप व्यग्र रहेंगे। लेकिन जब आप पक्के इरादे के साथ अपनी क्षमताओं का भरपूर इस्तेमाल करते हुए अपनी मंजिल की तरफ बढ़ेंगे, तब यह बात मायने नहीं रखती कि क्या हुआ और क्या नहीं हुआ। आपके साथ जो भी होगा कम से कम वह आपके वश में होगा और जो भी नतीजा मिलेगा वह आप के कर्मों का फल होगा। इससे आप सुकून का जीवन जी पाएंगे।
लक्ष्य के प्रति समर्पित इंसान के लिए विफलता जैसी कोई चीज नहीं होती। अगर एक दिन में आप सौ बार गिरते हैं तो इसका मतलब हुआ कि आपको सौ सबक मिल गए। अगर आप अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित हो जाएं, तो आपका दिमाग भी उसी तरह सुनियोजित हो जाएगा। जब आपका दिमाग सुनियोजित रहेगा तो आपकी भावनाएं भी उसी के अनुसार रहेंगी, क्योंकि जैसी आपकी सोच होगी, वैसी ही आपकी भावनाएं होंगी। एक बार जब आपकी सोच और भावनाएं सुनियोजित हो जाएंगी, आपकी ऊर्जा की दिशा भी वही होगी और फिर आपका शरीर भी एक लय में आ जाएगा। जब ये चारों एक ही दिशा में बढ़ें तो लक्ष्य हासिल करने की आपकी क्षमता गजब की होगी। आप अपने भाग्य के रचयिता बन सकते हैं।
जो लोग भाग्य पर निर्भर रहते हैं वे हमेशा सितारों, ग्रहों, स्थानों, भाग्यशाली जूते, भाग्यशाली साबुन, भाग्यशाली नंबर - सभी प्रकार की चीजों की तलाश में रहते हैं। भाग्य और अपनी इच्छित एवं अनुकूल घटनाओं के घटित होने की प्रतीक्षा करने की इस प्रक्रिया में, सरलता से प्राप्त हो जाने वाली वस्तुओं एवं सुख सुविधाओं आदि से भी ऐसे लोग पूर्ण रूप से दूर हो जाते हैं और इसके लिए भी अपने भाग्य को ही दोष देते हैं।
जब आप संयोग से जीते हैं, तो आप भय और चिंता में भी जीते हैं। जब आप इरादे और क्षमता से जीते हैं, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि क्या हो रहा है क्या नही, कम से कम आपके साथ जो हो रहा है उस पर आपका नियंत्रण है। यह अधिक स्थिर जीवन है।
इस संदर्भ में यह भी विचारणीय तथ्य है कि यदि हमारे पूर्वज भी संयोग के नाम पर ही अपना जीवन व्यतीत करते तो आज हम इतना सुविधाजनक जीवन नहीं जी पाते। जरा सोचिए कि कहाँ भोजन, वस्त्र तथा आश्रय आदि की खोज में भटकता आदिमानव और कहाँ आज का हर सुख-सुविधा से संपन्न आधुनिक मानव! विकास की यह दौड़ किसी भाग्य या संयोग के भरोसे बैठकर नहीं बल्कि अपने कर्म के आधार पर ही जीती गई है। इस संसार में बिना कर्म किए तो पशु-पक्षी को भी कुछ नहीं मिलता तो फिर मानव किस आधार पर सब कुछ पाने की कल्पना कर सकता है? वास्तव में सत्य तो यही है कि बिना प्रयास के भाग्य का कोई महत्व नहीं है। यदि हम केवल संयोग के भरोसे बैठे रहें तो जीवन में कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकेंगे किंतु यदि कर्मशीलता और परिश्रम का मार्ग चुनते हुए एकाग्रचित्त होकर प्रसन्न मन से हर कार्य करते हैं तो हमारी सफलता निश्चित हो जाती है और दुर्भाग्य भी सौभाग्य में बदलते देर नहीं लगती। इस प्रकार भाग्य भी हमारे चयन या चुनाव पर ही निर्भर करता है।
संस्कृत में एक प्रसिद्ध श्लोक है -
उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः॥
(जिस प्रकार सोते हुए सिंह के मुख में मृग स्वयं प्रवेश नहीं करते, उसी प्रकार केवल इच्छा करने से सफलता प्राप्त नहीं होती अर्थात अपने कार्य को सिद्ध करने के लिए परिश्रम करना पड़ता है।)
कहने का तात्पर्य यही है कि भाग्य या संयोग के नाम पर बैठे रहने से कुछ भी नहीं मिलता, इसके लिए प्रयास करना अनिवार्य है।
इतिहास में ऐसी अनगिनत कथाएं हैं जिनमें अपने पुरुषार्थ के बल पर विभिन्न व्यक्तियों ने असाध्य को भी साध्य कर दिखाया। महात्मा गांधी ने अपने सत्य और अहिंसा के बल पर अंग्रेजी दासता से मुक्ति का सूत्रपात किया। लिंकन ने अपने पुरुषार्थ के बल पर ही युद्ध पर विजय पाई। ये सभी चमत्कार मनुष्य के पुरुषार्थ का ही परिणाम थे, उसने साहसिक कार्यों से इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित कराया।
भाग्य और पुरुषार्थ एक दूसरे के पूरक हैं। पुरुषार्थी या कर्मवीर व्यक्तियों द्वारा जीवन में आने वाली विभिन्न चुनौतियों को सहजता से स्वीकार किया जाता है। कठिन से कठिन परिस्थिति में भी वे विचलित नहीं होते हैं। संघर्ष में वे निरंतर विजय की ओर अग्रसर होते हैं और जीवन में सफलता हासिल कर बुलंदियों तक पहुँचते हैं।
गीता में श्रीकृष्ण ने सच ही कहा है- “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन:।” कर्म का मार्ग पुरुषार्थ का मार्ग है। गंभीरता के साथ अपने कर्तव्य पथ पर अडिग अस्तित्व ही पुरुषार्थ का वास्तविक अर्थ है। पुरुषार्थी व्यक्ति ही जीवन में यश अर्जित करता है। वह स्वयं को ही नहीं बल्कि अपने परिवार, समाज और देश को भी गौरवान्वित करता है।
स्वामी विवेकानंद जी ने कहा है कि '‘अपने विचारों पर नियंत्रण रखो नहीं तो वे तुम्हारा कर्म बन जाएंगे और अपने कर्मो पर नियंत्रण रखो नहीं तो वे तुम्हारा भाग्य बन जाएंगे।'’ स्पष्ट है कि कर्म ही व्यक्ति के भाग्य और जीवन का निर्माण करते हैं।
अगर हम विश्व के प्रमुख देशों का इतिहास जानने की कोशिश करें तो हम देखते हैं कि वहां के नागरिक अधिक स्वावलंबी हैं। वे भाग्य पर नहीं बल्कि पुरुषार्थ पर विश्वास रखते हैं। जापान भौगोलिक दृष्टि से बहुत ही छोटा देश है लेकिन विकास की राह पर वह अन्य देशों से कहीं आगे है क्योंकि उसके नागरिक अत्यंत कर्मशील और परिश्रमी हैं। जापान के स्थान पर यदि दुनिया का कोई अन्य देश होता तो शायद वह परमाणु बम गिरने की विभीषिका के बाद इतनी प्रगति नहीं कर पाता लेकिन उसने भाग्यवाद या संयोग को स्वीकार न करते हुए कर्म और परिश्रम के मार्ग का चयन किया और अपने भाग्य को बदलकर एक अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया। इसी प्रकार संसार में अनेकों ऐसे उदाहरण देखने को मिल जाएंगे जहां व्यक्तियों ने शारीरिक, आर्थिक, मानसिक अथवा सामाजिक समस्याओं के बावजूद भाग्य के भरोसे ना बैठकर निरंतर प्रयास किया और सफलता की नई इबारत लिख दी।
इसलिए विलियम जेनिंग्स ब्रायन ने सही कहा है कि भाग्य संयोग नहीं, चयन का विषय है। इसके लिए प्रतीक्षा नहीं की जानी चाहिए। इसे तो हासिल किया जाना चाहिए।