किसी देश की प्रगति का मूल्यांकन उस देश की आर्थिक स्थिति और अर्थव्यवस्था के माध्यम से किया जाता है। जिस देश की आर्थिक स्थिति जितनी बेहतर होती है, वह उतनी ही अधिक प्रगति करता है और उस देश एवं उसके नागरिकों के विकास का मार्ग प्रशस्त होता है। यही कारण है कि प्रत्येक देश अपनी आर्थिक स्थिति और अर्थव्यवस्था को लेकर सदैव चिंतित एवं सतर्क रहता है और अपनी प्रगति के लिए हर संभव प्रयास करता है। यहाँ यह भी समझना आवश्यक है कि वैश्विक स्तर पर अर्थव्यवस्था में होने वाला कोई भी परिवर्तन विश्व के सभी देशों की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करता है। ऐसे में प्रत्येक देश को न केवल अपनी आर्थिक स्थिति बल्कि संपूर्ण विश्व की अर्थव्यवस्था को ध्यान में रखकर कार्य करना पड़ता है तथा वैश्विक स्तर पर होने वाले नकारात्मक परिवर्तनों से स्वयं को बचाए रखने एवं अपनी अर्थव्यवस्था की गति को बनाए रखने की चुनौतियों का भी सामना करना पड़ता है।
वर्तमान समय में संपूर्ण विश्व में मंदी की आशंका को लेकर हाहाकार मचा हुआ है और प्रत्येक देश इसे लेकर आशंकाओं से घिरा हुआ है। यदि आर्थिक मंदी की बात की जाए तो यह पहला अवसर नहीं है जब आर्थिक मंदी आने की संभावना है बल्कि इससे पूर्व भी कई बार विश्व में आर्थिक मंदी का प्रभाव देखने को मिला है और कई बार आर्थिक मंदी आने की आशंका निर्मूल भी सिद्ध हुई है। ऐसे में इस वर्ष आर्थिक मंदी के आने या न आने को लेकर कोई सटीक भविष्यवाणी नहीं की जा सकती लेकिन जिस प्रकार आर्थिक मंदी आने के अनुमान लगाए गए हैं, उसको देखते हुए विश्व के सभी देश सतर्क एवं चिंतित हैं और भविष्य को लेकर आशंकाओं से ग्रसित भी हैं।
अब यदि आर्थिक मंदी को परिभाषित करने की बात कही जाए तो हम यह कह सकते हैं कि जब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन में निरन्तर गिरावट हो रही हो और सकल घरेलू उत्पाद कम से कम तीन महीने डाउन ग्रोथ में हो तो इस स्थिति को वैश्विक आर्थिक मन्दी कहते हैं।
एक मंदी को वास्तविक जीडीपी में कमजोर या नकारात्मक वृद्धि की निरंतर अवधि के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो बेरोजगारी दर में उल्लेखनीय वृद्धि करती है। मंदी के दौरान आर्थिक गतिविधियों के कई अन्य संकेतक भी कमजोर होते हैं। उदाहरण के लिए, व्यवसायों द्वारा घरेलू खर्च और निवेश का स्तर आमतौर पर कम होता है। इसके अलावा, ऋण चुकाने में असमर्थ परिवारों और व्यवसायों के साथ ही बंद होने वाले व्यवसायों की संख्या भी असामान्य रूप से अधिक होती है।
एक निरंतर अवधि के दौरान सामान्य आर्थिक गतिविधि में कमी आने या व्यापार चक्र में संकुचन को अर्थशास्त्र में मंदी कहा जाता है। मंदी के दौरान कई व्यापक-आर्थिक संकेतक समान रूप से परिवर्तित होते हैं। सकल घरेलू उत्पाद द्वारा मापा जाने वाला उत्पादन, रोजगार, निवेश, क्षमता उपयोग, घरेलू आय और व्यवसायिक लाभ, इन सभी में मंदी के दौरान घटोत्तरी होती है।
इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि आर्थिक मंदी अर्थव्यवस्था का एक कुचक्र है जिसमें फंसकर आर्थिक वृद्धि रुक जाती है और देश के विकास कार्यों में बाधा आ जाती है। इस दौरान बाज़ार में वस्तुओं की भरमार होती है लेकिन खरीदने वाला कोई नहीं होता है। उत्पादों की आपूर्ति अधिक व मांग कम होने से अर्थव्यवस्था असंतुलित हो जाती है।
आर्थिक मंदी में व्यक्ति के पास धन की कमी होती है और वह अपनी आवश्यकताओं को कम करने का प्रयास करता है। इसका परिणाम यह होता है कि बाजार में मांग कम होने लगती है और उत्पादों की बिक्री कम होती है। ऐसे में स्वाभाविक है कि जब मांग कम होगी तो उत्पादन पर भी असर पड़ेगा इसलिए कम्पनियाँ अपने लाभ के अनुसार ही कर्मचारियों को रखना चाहेंगी, जिससे कर्मचारियों की छंटनी शुरू हो जाती है और लाखों की संख्या में लोग बेरोजगार हो जाते हैं।
इतिहास में महामंदी या भीषण मन्दी के नाम से जानी जाने वाली घटना एक विश्वव्यापी आर्थिक मंदी थी। यह 1929 के लगभग शुरू हुई और 1939-40 तक जारी रही। विश्व के आधुनिक इतिहास में यह सबसे बड़ी और सर्वाधिक महत्व की मंदी थी। इस घटना ने पूरी दुनिया में ऐसा कहर मचाया था कि उससे उबरने में कई साल लग गए। इसके व्यापक आर्थिक व राजनीतिक प्रभाव हुए। इससे फासीवाद बढ़ा और अंतत: द्वितीय विश्वयुद्ध की नौबत आई। हालांकि यही युद्ध दुनिया को महामंदी से निकालने का माध्यम भी बना।
दुनिया के अधिकांश देश इस महामंदी की चपेट में आ गये थे। औद्योगिक देशों की बात करें तो अमेरिका को इस आर्थिक महामंदी की सबसे ज़्यादा मार झेलनी पड़ी थी। अमेरिका की अर्थव्यवस्था जितनी तेजी से समृद्ध हो रही थी, उतनी ही तेजी से लुढ़क भी गई थी।
मंदी के चलते अमेरिकी बैंकों ने घरेलू क़र्जे़ देना बंद कर दिया था और जो क़र्जे़ पहले दिये जा चुके थे,उनकी वसूली शुरू कर दी थी। कर्ज चुकाने में असमर्थ परिवारों के मकानों और कारों समेत सभी आवश्यक वस्तुएँ कुर्क कर ली गईं थीं। हज़ारों बैंक कर्ज वसूल न कर पाने, ग्राहकों की जमा पूंजी न लौटा पाने और निवेश की गई धनराशि में लाभ न मिलने पर दिवालिया हो गये थे और उन्हें बंद कर दिया गया था। इस प्रकार अमेरिकी बैंकिंग प्रणाली भी ध्वस्त हो गई थी।
आंकड़ों की बात करें तो, साल 1933 तक 4000 से ज़्यादा बैंक बंद हो चुके थे और साल 1929 से 1932 के बीच करीब 1,10,000 कंपनियाँ नष्ट हो गईं थीं। इतनी बड़ी संख्या में बैंक और कंपनियाँ बंद होने से तेजी से बेरोज़गारी बढ़ी और लोग काम की तलाश में दूर-दूर तक जाने लगे।
अब यदि आर्थिक मंदी के कारणों की बात की जाए तो इसका एक प्रमुख कारण धन का प्रवाह या निवेश का रुक जाना है। मंदी में लोगों की क्रय शक्ति कम हो जाती है, साथ ही देश-विदेश से आने वाला निवेश भी कम हो जाता है, अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें बढ़ने से महंगाई दर और बढ़ती है तथा लोग अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ नहीं खरीद पाते हैं। डॉलर के मुकाबले रुपये की घटती हुई कीमत भी इसका एक प्रमुख कारण है। मंदी के दौरान आयात के मुकाबले निर्यात में गिरावट होने से देश का राजकोषीय घाटा बढ़ जाता है और विदेशी मुद्रा भंडार में कमी देखने को मिलती है।
अब यदि वर्तमान संदर्भ में बात करें तो सीईबीआर के अनुसार महंगाई पर काबू करने के लिए ब्याज दरों में की गई बढ़ोतरी के कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था में 2023 में मंदी का असर दिखेगा। सीईबीआर की रिपोर्ट में कहा गया है कि महंगाई के खिलाफ जंग अभी समाप्त नहीं हुई है और अर्थव्यवस्था में सिकुड़न की आशंका के बावजूद केद्रीय बैंक 2023 में अपना कड़ा रुख कायम रख सकते हैं। आर्थिक मंच की प्रबंध निदेशक सादिया जाहिदी के अनुसार बढ़ती महंगाई, धीमी पड़ती वृद्धि, बढ़ रहा कर्ज और पर्यावरणीय बदलावों से निवेश का लाभ कम हुआ है। इससे तरक्की की रफ्तार बाधित हो रही है और रहन-सहन का खर्च बढ़ रहा है। वर्तमान समय में विश्व का बड़ा हिस्सा इन वास्तविकताओं की चपेट में है। इन्हीं के कारण 2023 में दुनिया पर मंदी का खतरा गहरा रहा है।
विश्व बैंक ने कई देशों की आर्थिक वृद्धि की संभावित दर घटाई है और कई देशों की कम हुई वृद्धि दर से आने वाले समय में मंदी की आशंका पैदा हुई है। यूक्रेन युद्ध के दुष्परिणामों से भी मंदी की आशंका बढ़ी है और बड़ी अर्थव्यवस्थाओं वाले देश उसकी चपेट में आए हैं। कोरोना संक्रमण की स्थिति भी आर्थिक गतिविधियों पर बड़ा असर डाल सकती है। मंदी की स्थिति का असर वैसे तो पूरी दुनिया पर पड़ेगा लेकिन कमजोर और सिकुड़ती अर्थव्यवस्था वाले देश इससे सर्वाधिक प्रभावित होंगे।
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने चेतावनी दी है कि 2023 में वैश्विक अर्थव्यवस्था के एक तिहाई हिस्से पर मंदी का हमला हो सकता है। IMF ने कहा है कि 2022 में मंहगाई का प्रकोप झेलने के बाद अब 2023 में मंदी आ सकती है और 2023 ज्यादा मुश्किल हालात का गवाह बन सकता है। उसने आशंका जताई है कि अमेरिका, यूरोपीय संघ और चीन में आर्थिक सुस्ती के असर से 2023 में दुनियाभर की अर्थव्यवस्था का एक तिहाई हिस्सा मंदी की चपेट में आ सकता है। विश्व व्यापार संगठन के अनुसार भी वैश्विक मंदी आ रही है। संगठन भविष्यवाणी कर रहा है कि वैश्विक व्यापार की मात्रा में अगले साल 1 प्रतिशत की कमी आएगी क्योंकि संकट और चुनौतियां बाजारों पर भारी पड़ती हैं, जिसमें उच्च ऊर्जा की कीमतें, बढ़ती ब्याज दरें और कोविड-19 महामारी के बीच चीनी विनिर्माण उत्पादन के बारे में अनिश्चितताएं शामिल हैं। इसी प्रकार लगभग दो-तिहाई मुख्य अर्थशास्त्रियों का मानना है कि 2023 में वैश्विक मंदी आने की आशंका है। इनमें से 18% ने इसकी अत्यधिक संभावना जताई है। यह आंकड़ा सितंबर 2022 में किए गए पिछले सर्वेक्षण की तुलना में दोगुने से भी अधिक है। सर्वेक्षण में शामिल एक तिहाई लोगों ने कहा कि इस साल वैश्विक मंदी की आशंका नहीं है, हालांकि इस बात पर पूरी सहमति है कि 2023 में वृद्धि की संभावनाएं धूमिल हैं।
यदि कोविड-19 महामारी नहीं होती तो वैश्विक उत्पादन 2016 के बाद से वैश्विक स्तर पर 23 प्रतिशत बढ़ गया होता जबकि अब इसके केवल 17 फीसदी बढ़ने का अनुमान है। दुनिया पर 17 ट्रिलियन डॉलर से अधिक की लागत आने की उम्मीद है, जो दुनिया की आय का लगभग 20 प्रतिशत है। व्यापार और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन की रिपोर्ट के अनुसार रूस, इंडोनेशिया, भारत, यूके और जर्मनी उन देशों में शामिल हैं, जो इस वैश्विक उत्पादन हानि में सबसे अधिक प्रभावित होंगे। सभी मुख्य अर्थशास्त्रियों ने यूरोप में 2023 में "कमजोर या बहुत कमजोर" वृद्धि की आशंका जताई है। 91 प्रतिशत अर्थशास्त्रियों ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था के बहुत खराब प्रदर्शन की उम्मीद जताई है। चीन पर इन अर्थशास्त्रियों का अनुमान 50:50 का था। आधे ने जहां गिरावट की उम्मीद जताई वहीं आधे अर्थशास्त्री सकारात्मक माहौल लौटने की उम्मीद कर रहे हैं।
वर्ल्ड बैंक ने एक रिपोर्ट में कहा है कि ग्लोबल इकोनॉमी की गति वर्ष 2030 तक तीन दशक में सबसे कम रह सकती है। रिपोर्ट के अनुसार प्रोडक्टिविटी और लेबर सप्लाई और निवेश को बढ़ावा देने के साथ-साथ सर्विस सेक्टर की क्षमताओं को बेहतर तरीके से इस्तेमाल करना होगा। रिपोर्ट में कहा गया है कि जिस मंदी का हम जिक्र कर रहे हैं, वह और तेज हो सकती है। यदि एक और वैश्विक वित्तीय संकट उभरता है, खासकर अगर वह संकट वैश्विक मंदी के साथ हो तो यह मंदी विकास की संभावनाओं को प्रभावित कर सकती है। विश्व बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री इंदरमीत गिल ने कहा कि वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए यह एक 'लॉस्ट डेकेड' साबित हो सकता है।
अमेरिका और यूरोप के बैंकिंग संकट ने दुनिया भर के बाजारों को झकझोर दिया है। भारतीय बाजार में भी इसका असर देखने को मिल रहा है। बैंकिंग स्टॉक्स पर दबाव दिख रहा है। अमेरिका में दो बैंकों पर ताला लग गया है और कई दूसरे बैंकों पर भी इस संकट का साया गहराता नजर आ रहा है।
आशंका जताई जा रही है कि सिलिकॉन वैली बैंक और सिग्नेचर बैंक के डूबने के बाद अमेरिका का बैंकिंग संकट अपनी चपेट में कई और बैंकों को भी ले सकता है। यूरोप का क्रेडिस सुइस बैंक संकट में फंसकर बिक चुका है।
उपर्युक्त नकारात्मक संभावनाओं के बावजूद यह भी अनुमान है कि वर्ष 2037 तक विश्व का सकल घरेलू उत्पाद दोगुना हो जाएगा, क्योंकि विकासशील अर्थव्यवस्थाएं अमीर देशों की इकोनॉमी के बराबर हो जाएंगी। शक्ति के बदलते संतुलन से 2037 तक पूर्वी एशिया और प्रशांत क्षेत्र का वैश्विक उत्पादन में एक तिहाई से अधिक का योगदान होगा, जबकि यूरोप का हिस्सा पांचवें से भी कम हो जाएगा। इसी प्रकार अर्थशास्त्रियों के बीच कराए गए सर्वे की रिपोर्ट में भारत को आर्थिक मंदी के खतरे से पूरी तरह बाहर बताया गया है। अर्थशास्त्रियों ने यहाँ मंदी की संभावित आशंका शून्य बताई है।
अन्ततः हम यह कह सकते हैं कि मंदी की आशंका से संपूर्ण विश्व कांप रहा है किंतु मंदी आने की कोई सटीक भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है और यह केवल परिस्थितियों पर ही निर्भर है। यदि समय रहते मंदी से बचने के आवश्यक उपाय कर लिए जाएँ तो शायद मंदी की नौबत भी नहीं आएगी अथवा मंदी आने पर भी अधिक नुकसान से बचा जा
सकेगा।