Photo by Hannah Busing on Unsplash

विश्व का विशालतम प्रजातंत्र भारत केवल अपनी भौगोलिक सीमाओं के विस्तार अथवा बढ़ती जनसंख्या के कारण विशाल नहीं है, वरन यह अपनी विविधता में एकता की मूल पहचान के कारण ही संपूर्ण संसार में विशिष्ट स्थान रखता है। वास्तव में शांति और सद्भाव किसी भी देश की बुनियादी आवश्यकता है। देश के नागरिक खुद को तभी सुरक्षित महसूस कर सकते हैं तथा केवल तभी समृद्ध हो सकते हैं जब वातावरण को शांतिपूर्ण बनाए रखा जाए। यद्यपि भारत में सभी नागरिकों के लिए पर्याप्त शांतिपूर्ण माहौल है तथापि विभिन्न कारणों से देश की शांति और सद्भाव कई बार बाधित हो जाता है। भारत में विविधता में एकता देखी जाती है। विभिन्न धर्मों, जातियों और पंथों के लोग देश में एक साथ रहते हैं। भारत का संविधान अपने नागरिकों को समानता की स्वतंत्रता देता है तथा देश में शांति और सद्भाव सुनिश्चित करने के लिए विभिन्न कानून भी लागू किए गए हैं।

भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है। भारत का संविधान अपने प्रत्येक नागरिक को अपने-अपने धर्म का पालन करने का अधिकार देता है। देश में कोई आधिकारिक धर्म नहीं है। सभी धर्मों का समान रूप से आदर किया जाता है। सभी धर्मों का सम्मान देश में शांति और सहयोग को बढ़ावा देने का एक तरीका है। विभिन्न धर्मों के लोग एक-दूसरे के साथ प्रसन्नतापूर्वक रहते हैं और सभी उत्सवों को समान उत्साह के साथ मनाते हैं। विद्यालयों में, कार्यस्थलों में और विभिन्न अन्य स्थानों पर सभी लोग एक साथ मिलकर काम करते हैं। ये सब सामाजिक सद्भाव के उदाहरण हैं।

मनोविज्ञान में, सद्भाव का तात्पर्य आंतरिक शांति तथा शांति और संतुलन की सकारात्मक स्थिति के साथ-साथ दुनिया के साथ जुड़े रहने की भावना से है। सामाजिक विज्ञान में, इसका उपयोग एक सामाजिक समूह के भीतर और व्यक्तियों तथा उनके सामाजिक संदर्भ के बीच संबंधों के पैटर्न का वर्णन करने के लिए किया जाता है।

सामान्यतः हमारा समाज प्राचीन काल से ही एक विषम समुदाय रहा है। यहाँ के लोगों ने साझा लक्ष्य और आदर्शों से इस प्रकार की भूमिका निभाई है कि पोशाक, आहार, रीति-रिवाज, विश्वास और यहाँ तक कि बाहरी धार्मिक पालन में भी एकरूपता की आवश्यकता नहीं है। यह अनिवार्य रूप से संवाद की एक रहस्यमय प्रक्रिया है जिसमें जीवन की गुणवत्ता को बढ़ाया जा सकता है और नागरिकों की ओर से योगदान किया जा सकता है। भारतीय समाज में संवाद की इस सहज प्रक्रिया की व्यापकता के बावजूद, अक्सर दिखाई देता है कि विविधता जिसके मूल में धर्म है, राजनीतिक और सामाजिक अस्थिरता से पैदा होने वाले विघटन और फूट के लिए शक्तिशाली शक्ति बन जाती है। यह हिंसा अब एक उपकरण-सी बन गयी है।

विभिन्न धार्मिक पृष्ठभूमि और संस्कृति के साथ-साथ लोग कंधे से कंधा मिलाकर चलते हैं, जो अपने-अपने ईश्वर या देवताओं में विश्वास रखते हैं। इसी तरह हमारा अभिमान कि हम "श्रेष्ठ" हैं और हमारा विश्वास उनकी तुलना में बेहतर है अथवा कौन सी आस्था प्रणाली या विश्वास बेहतर है, कौन सा सत्य का सही मार्ग है, हम अपने धर्म के अनुयायी हैं और वही सर्वोत्तम है, इन सबके फेर में पड़कर हम धर्म की मूल शिक्षाओं तथा सिद्धांतों को भूल जाते हैं और ऐसी कठोरता का सहारा लेते हैं जो धार्मिक विविधता एवं बहुलता के लिए खतरा बन जाती है।

समाज में घातक ध्रुवीकरण के कारण होने वाली क्षति को सुधारना और समाज को पुनः संवारना एक महत्वपूर्ण कार्य है। हालाँकि, विभिन्न विरोधाभासों के बीच अंतरधार्मिक संवाद सामाजिक संतुलन के बिंदु को प्राप्त करने में सहायक है लेकिन कुछ पूर्व तथ्यों पर ध्यान देना भी आवश्यक है। मानव समाज को एक साथ क्या बांधे रखता है? हमें किसी सामाजिक या सांस्कृतिक संवाद की क्या आवश्यकता है? क्या हमें 'अन्य' को पुराना करने की आवश्यकता है? हम उस व्यक्ति से कैसे संबंध रखते हैं जो किसी भिन्न ईश्वर की पूजा करता है? क्या हम साक्ष्य की बाधा को पार कर एक साथ मिलकर रह सकते हैं? क्योंकि हर धर्म के मूल में श्रेष्ठता और विचारधारा की भावना होती है तथा इस बाधा को तोड़ने से व्यक्ति स्वयं को कम पवित्र अनुभव करता है।

सामाजिक सद्भाव की भावना को बनाए रखने के लिए संवाद महत्वपूर्ण है क्योंकि यह जिस समाज में हम रहते हैं, उसमें विश्वास के पैमाने और अंतर के बीच समावेश को गहरा करने के द्वार खोलता है। व्यापक समझ यह है कि वे एक-दूसरे को सलाह देने के लिए नीतिगत निर्णय ले रहे हैं। साथ ही इस भय को नकारा नहीं जा सकता है कि विनिमय के बाद की स्थितियाँ समान नहीं होंगी। ऐसी संभावना इसलिए है क्योंकि संवाद की प्रक्रिया में अभ्यासकर्ता की आत्म-आलोचना की इच्छा तथा क्षमता का भी परीक्षण होता है।

संवाद सदैव विचारधाराओं और विविधताओं के माध्यम से नवीन अवधारणाओं हेतु मार्ग प्रशस्त करता है। इस संबंध में मित्रता की एक निश्चित स्तर की भेद्यता की भी आवश्यकता है ताकि जब दो व्यक्ति एक साथ हों तो दोनों की समझ और योग्यता में वृद्धि हो। सह-अस्तित्व और एक-दूसरे के साथ शांति से रहने के संदर्भ में लगभग सभी आस्थाएं और परंपराएं भी सह-अस्तित्व के समान सिद्धांत हैं और उनमें 'अन्य व्यक्तियों' के आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक तत्वों के अलग होने के कारण भेदभाव ना करने की भावना सम्मिलित की जाती है।

हमारे समुदाय या वैश्विक गांव में हर दिन एक संवाद होता है और संवाद में शामिल होने का अर्थ किसी भी प्रकार से अपने धार्मिक विश्वास या जातीय परंपरा को परिभाषित करना नहीं है। सामाजिक संवाद तभी संभव और प्रेरक है जब लोग अपने सिद्धांतों में वास्तविक विश्वास रखकर उसी प्रक्रिया के माध्यम से अन्य धर्मों और समुदायों के सिद्धांतों को सुनते हैं तथा उनके सम्मान की इच्छा उत्पन्न करते हैं। कोई भी 'दूसरे' को अपने रंग, पंथ या धर्म से हीन नहीं बता सकता। प्रयास यह हो कि हम एक-दूसरे के साथ समन्वय स्थापित करते हुए कैसे रह सकते हैं और एक-दूसरे की परम्पराओं को कैसे समझ सकते हैं।

सभी धर्मों और समुदायों का मूल सिद्धांत एकता और केवल एकता का सिद्धांत है। यह प्रेम, करुणा, शांति, अहिंसा, मानवता और प्रकृति के साथ एकता है। यह महत्वपूर्ण है कि हम बातचीत और शांति स्थापना के लिए उपकरणों का साधन के रूप में उपयोग करें क्योंकि आध्यात्मिक और सांस्कृतिक अंतर-समुदाय से प्राप्त संसाधनों से वास्तविक भेदभाव और अज्ञानता को दूर करना, शांति निर्माण के प्रति जिम्मेदारी निभाना और सद्भाव को महत्व देना महत्वपूर्ण है। इसलिए संवाद के माध्यम से सामाजिक और सामुदायिक संबंधों में संघर्ष की स्थिति में बेहतर समझ को बढ़ावा दिया जा सकता है और सामाजिक सद्भाव का समर्थन किया जा सकता है जो धार्मिक एवं जातीय गरिमा की पुष्टि करता है।

यह समझ एक बहुस्तरीय नीति और अभ्यास संरचना के निर्माण में सहायक हो सकती है, जिसमें नीति निर्माता, हितधारक तथा अभ्यासकर्ता संवाद को और अधिक प्रभावशाली बनाने में योगदान कर सकते हैं। उन्हें एक उपयुक्त नीति संदर्भ विकसित करने की आवश्यकता है और केवल बहुसांस्कृतिक, मान्यतावादी, या सैद्धांतिक दृष्टिकोणों पर अनुमोदित नियमों से कार्य करना आवश्यक नहीं है। इसके बजाय, वैयक्तिक और वैयक्तिक संघों के बीच महत्वपूर्ण विषयों पर ध्यान केंद्रित करने वाले संवाद के रूप में विभिन्न प्रकार के योगदान के सिद्धांतों का समर्थन किया जा सकता है। साथ ही लोगों के बीच वैयक्तिकता को दूर करने और अंतरसांस्कृतिक तथा अंतरधार्मिक सहभागिता की विचारधारा को भी बढ़ावा देने का उदाहरण प्रस्तुत किया जा सकता है।

सामाजिक एकता को उस सूत्र के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो समाज को एक साथ बांधे रखता है। इसमें साझा मूल्य और सामाजिक संपर्क जैसे विभिन्न तत्व शामिल हैं, जो समुदाय के सदस्यों के बीच अपनेपन और एकजुटता की भावना में योगदान करते हैं। सामाजिक एकजुटता के महत्व को कम करके नहीं देखा जा सकता, क्योंकि यह विपरीत विचारधारा में सहयोग, सहानुभूति और समन्वय को बढ़ावा देता है।

यद्यपि भारत में सामाजिक सद्भाव बनाए रखने के लिए सरकार द्वारा हर संभव प्रयास और उपाय किए जाते हैं, तथापि समय-समय पर विभिन्न कारणों से सामाजिक सद्भाव के मार्ग में बाधा उत्पन्न होती है जिन्हें समझना आवश्यक है। भारत का संविधान किसी भी धर्म का आधिकारिक तौर पर पालन नहीं करता और अपने नागरिकों को कोई भी धर्म चुनने या बदलने की अनुमति देता है। हालांकि यहाँ कुछ ऐसे धार्मिक समूह हैं जो अपने धर्म को उस सीमा तक फैलाते हैं जो देश की शांति और सदभाव में अस्थिरता लाता है। इसी प्रकार भारत में व्यक्ति की जाति और धर्म के आधार पर भेदभाव करना आम बात है भले ही संविधान सभी को समानता का अधिकार देता है। यह भेदभाव सामाजिक संतुलन को बिगाड़ता है जिससे बाधित होती है।

संविधान में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लोगों के जीवन स्तर को बढ़ाने के उद्देश्य से आरक्षण का प्रावधान किया गया था। इसके कुछ वर्षों पश्चात अन्य पिछड़े वर्ग को पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिए जाने हेतु उन्हें भी आरक्षण दिया गया किंतु पिछले कुछ समय से आरक्षण एक राजनीतिक मुद्दा बनता जा रहा है और आए दिन नई-नई जातियां आरक्षण की मांग करती हैं। राजनीतिक दल भी उन्हें अपना समर्थन प्रदान करते हैं जिसके चलते आंदोलन की स्थितियां उत्पन्न होती हैं और सामाजिक सद्भाव पर खतरा मंडराने लगता है।

राज्यों के आपसी मुद्दे भी सामाजिक सद्भाव के मार्ग की बड़ी बाधा हैं। कई क्षेत्रीय दल अन्य राज्यों के लोगों को अपने इलाके में बसने के लिए प्रोत्साहित नहीं करते हैं। इसी प्रकार दूसरे राज्यों के लोगों के साथ दुर्व्यवहार एवं उनके उत्पीड़न की खबरें अक्सर देखने-सुनने को मिलती हैं। साथ ही राजनेता भी इस संबंध में अनुचित टिप्पणियां करते हुए क्षेत्रवाद की राजनीति को बढ़ावा देते हैं जिससे सामाजिक सद्भाव पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।

बेरोजगारी और गरीबी में होती वृद्धि भी कहीं ना कहीं सामाजिक सद्भाव को अवश्य प्रभावित करती है।

शिक्षा का अभाव और अच्छे रोजगार के अवसरों की कमी से बेरोजगारी हो जाती है, जो गरीबी में वृद्धि करती है और देश में अपराध की दर को बढ़ाती है। इसी प्रकार मूल्य वृद्धि एक और समस्या है जो समाज के सुचारु संचालन को बाधित करती है।

कई बार विपक्ष अपने स्वार्थपूर्ण उद्देश्यों को पूरा करने के लिए सत्तारूढ़ दल के विरुद्ध जनता को उकसाता है। जनता को धर्म, जाति, क्षेत्र तथा भाषा आदि के आधार पर बाँटने का प्रयास किया जाता है जिससे सामाजिक सद्भाव पर दुष्प्रभाव पड़ता है।

आतंकवाद सामाजिक सद्भाव के मार्ग की प्रमुख बाधाओं में से एक है। भारत ने कई बार आतंकवादी हमलों का सामना किया है जो नागरिकों के बीच भय उत्पन्न करते हैं। आतंकवाद के मूल में भी धर्म, नस्ल, क्षेत्र आदि की भावनाएं छिपी रहती हैं और इससे सामाजिक सद्भाव का बिगड़ना स्वाभाविक है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि सामाजिक सद्भाव के मार्ग में कई बाधाएँ अपना मुँह खोले खड़ी हैं। समय-समय पर उत्पन्न होने वाली विपरीत परिस्थितियों एवं समस्याओं के कारण सामाजिक सद्भाव का मार्ग बाधित होता है ऐसे में संवाद ही एकमात्र ऐसा माध्यम है जिससे शांतिपूर्ण एवं सामाजिक सद्भाव से युक्त वातावरण का निर्माण करना संभव हो सकता है। हम चाहे सांप्रदायिकता की बात करें अथवा जातिवाद की, देश में राजनीतिक संकट हो अथवा आतंकवाद या अन्य कोई भी परिस्थिति हो, संवाद के माध्यम से ही प्रत्येक समस्या का समाधान हो सकता है इसमें कोई भी संशय नहीं है। ऐतिहासिक रूप से यह प्रमाणित है कि संवाद ने हमेशा सामाजिक सद्भाव को बनाए और बचाए रखने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते है कि सामाजिक सद्भाव बनाए रखने के लिए हमें अपने समाज की समस्याओं का भी समाधान करना होगा। कोई भी देश या समाज उसमें विद्यमान मनुष्यों से मिलकर बनता है। अतः यदि हम एक अच्छा समाज या एक महान देश बनाना चाहते हैं तो हमें महान मनुष्यों का निर्माण करना होगा जो परस्पर संवाद के माध्यम से सामाजिक सद्भाव को बनाए रखने एवं इसमें उत्तरोत्तर वृद्धि हेतु सार्थक प्रयास करें और उ,हमारा देश ऐसा बन सके जहाँ-

सबकी नसों में पूर्वजों का पुण्य रक्त प्रवाह हो,
गुण,शील,साहस,बल तथा सबमें भरा उत्साह हो।
सबके हृदय में सर्वदा संवेदना की दाह हो,
तुमको हमारी चाह हो हमको तुम्हारी चाह हो।।
विद्या,कला,कौशल्य में सबका अटल अनुराग हो,
उद्योग का उन्माद हो आलस्य अघ का त्याग हो।
दुःख और सुख में एक-सा सब भाइयों का भाग हो,
अंतःकरण में गूंजता राष्ट्रीयता का राग हो।।

.    .    .

Discus