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मेरा देश मुझे सबसे प्रिय है। मैं अपने देश के लिए किसी भी तरह के त्याग व बलिदान देने के लिए हमेशा तत्पर हूँ। हमारे स्कूलों में भी बचपन से यही सिखाया गया है। और हमें अपने देशवासियों के प्रति हमेशा सद्भाव व प्रेम की भावना रखनी चाहिए। यह बात शत् प्रतिशत सही है। परंतु कबतक? कबतक यह प्रेम भावना बनी रह पाएगी? जब हमारे साथ रहने वाले हमारे अपने ही आपस में भेद रखने लगे हैं तो कबतक सामने वाला यह सह पाएगा? क्या उसे यह भेद सहना चाहिए? मेरा सवाल सबसे है - आखिर किसने? किसने लोगों को यह हक दिया कि वे दूसरों को किसी भी मायने में जज करें?

आखिर किसने?- यह एक ऐसा सवाल है जो आपको सोचने में मजबूर कर देगा कि हाँ आखिर किसने? आज का युग पढ़े लिखे लोगों के दौर से गुज़र रहा है जहाँ लोग समझदार भी हो रहे हैं और कुछ वापस कुंठित सोच की ओर बढ़ रहे हैं।

हमारे समाज में कई प्रकार के लोग रहते हैं।सभी की अपनी अपनी राय है।जब खुद की हाथों की सभी उँगलियाँ एक समान नहीं होतीं तो हम ऐसा कैसे सोच लें कि हमारे साथ रहने वाले लोग भी हमारे जैसे ही होंगे या हमारे मन मुताबिक हमारी इच्छानुसार ढल जाएंगे? सभी को पूरी आज़ादी के साथ जीने का हक है। तो आखिर किसने किसीको किसीकी आजादी छीनने का हक दिया?

कोई उम्र से अलग है तो कोई अनुभव के आधार पर अलग है। किसी की शारीरिक आकृति से वो अलग है तो कोई अपनी संकुचित सोच के कारण अलग है। मानसिक रूप से अपंग लोगों को साधारण लोग उस निगाह से देखते हैं मानों वो इंसान न होकर कोई जंगली हो जो सिर्फ़ नुकसान करेगा। नहीं-, सत्य तो यह है कि सैनिकों के बाद ऐसे लोग ही देश के असली नागरिक कहलाने का हक रखते हैं। कम से कम ये जानते तो हैं कि इंसान इंसान ही है उनमें कोई भेद नहीं। ये सिर्फ़ प्रेम की भाषा जानते हैं। इनके मन में कोई धर्म, जाति, रंग, रूप, शरीर, काम, उम्र,पहनावे, लिंग, पैसों का मोल नहीं।

क्या हममें से कोई ये जानता है कि लड़कियों के पहनावे का चुनाव करने का हक खुद लड़कियों के अलावा और किसके पास है? जब उनके माता पिता उन्हें नहीं टोकते तो बाहर वालों को ये हक किसने दिया? लड़कों को ही खर्चा करना चाहिए- सिर्फ़ लड़कों के प्रति यह नियम आखिर किसने बनाया?

आखिर कौन करता है इस समाज में इन सोच की शुरुआत और आखिर लोग क्यूँ अपनों के साथ करते हैं ऐसा गैरों वाला बर्ताव? आखिर किसने हक दिया?

आखिर किसने दिया हम इंसानों को यह हक की हम हमारी जननी प्रकृति के साथ खिलवाड़ करें वो भी खुद के फ़ायदे के लिए? आखिर किसने हक दिया किसी बेज़ुबान की जान लेने का? आखिर किसने हक दिया कि कोई किसी बेसहारों का फायदा उठाए? गरीबों की गरीबी का मज़ाक उड़ाने का हक आखिर उन लोगों को किसने दिया? आखिर किसने हक दिया कि कोई ,किसी को, किसी भी मायने में तोल कर भरे बाजार में निंदा कर सके? कुछ खुद को खुदा के बाद महान समझते हैं तो कोई खुद को भगवान का दूसरा रूप मानकर अपनी मनमानी कर लेना अपना अधिकार मान लेते हैं। किसने इनको इतना महान बनाया? इस सृष्टि के रचयिता ने तो यह भेद नहीं बनाया, तो किसने ऐसा किया?

इस समाज में यह सवाल न पूछने के कारण जो गंदगी फैल चुकी है उसकी कीमत मासूम लोगों को भरी दुनिया के सामने शर्मिंदगी मेहसूस करके चुकानी पड़ती है। इससे लोगों के स्वाभिमान को ठेस पहुँचती है। ऐसी प्रतिक्रिया लोगों की भावनाओं को आहत करती है । हमें अपनी जन्म भूमि को ऐसे दबे पिछड़े विचारों से मैली नहीं होने देना चाहिए। जब कभी खुद पर ऐसा बर्ताव हो तभी लोग बात की गंभीरता को समझने का प्रयास करते हैं।

परंतु यह सवाल सबसे महत्वपूर्ण है कि *आखिर किसने* हमें यह हक दिया कि वे किसी को भी जज कर सकते हैं , उनके चरित्र पर सवाल उठा सकते हैं। खुद के घर में ऐसा हो तो बदनामी के डर से आवाज़ दबा दी जाती है। दूसरे आवाज उठाए तो बदतमीज़ी का हवाला देकर उनको ही गलत ठहरा दिया जाता है। ऐसा नहीं होना चाहिए न? सही का साथ देना सीखना होगा।

एक बार सोच के ज़रूर देखना अगर उत्तर मिले तो बताना ज़रूर और न मिले तो जताना ज़रूर।

आखिर किसने?

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