आई थी मैं तो जीने इस दुनिया को,
अपनों के बीच, अपनों के संग।
नहीं पता था मुझको ये कि अपने ही,
छीन लेंगे मुझसे मेरे सपने सारे,
बचपन के दिन मेरे सुहाने।
और यह जाऊंगी अकेली मैं,
अपनों के संग , अपनों के बीच।
है यहां हर इंसान अपना,
रिश्ता-अपना, लोग-अपने
अपना यहां हर पल हैं,
पर फिर भी है कोई नही,
हो जो अपना, अपनों के बीच।
न सुनता है कोई, न कोई समझता है यहां
रहती हूं मैं गुमसुम सदा ही,
लगता है अपनों को मेरे, कि
यू रहना चुपचाप अकेला है स्वभाव मेरा,
पर नहीं समझ पाया कोई , कि
यहां है नहीं वो इंसान जो सुनले मुझे मेरी जुबानी।
है नहीं कोई अपना मेरा यहां , मेरे ही अपनों के बीच।
खिलाया सबने बहुत मुझे, बचपन मे
पर नहीं खिला पाया कोई, मेरे दिल,
मेरे दिल के अंदर, और होती गई मैं हर बार अकेली,
रहकर अपनों की भीड़ में भी।
एक-एक कर गुजरने लगे दिन बचपन के,
और हो गई मैं बड़ी थोड़ी,
करती जा रही थी लगातार, सबके मन का पूरा हर- बार
भूल गई कि है, कुछ इच्छाएं मेरी खुदकी भी,
करने पूरा सपनों को संग अपनों के किया इंतजार तो बहुत।
बरकरार है वो इंतजार आज भी कि,
आएगा एक दिन ऐसा, जब होगी पहचान मेरे भी अस्तित्व की,
संग मेरे अपनों के, अपनों के बीच।
जो देखे हैं सपने मैंने, समझेंगे मेरे अपने भी,
शायद कभी तो लुटाएंगे वो प्यार बेशुमार मुझ पर भी।
शायद कभी तो खलेंगी कमियां उनको मेरी भी,
शायद कभी तो आएगा वो दिन जब ये दिल,
दिल से बोलेगा
कि, मैं भी अपनों के संग, अपनों के बीच।