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मनवा गहरा सिंधु सा मिले न जाकी थाय,
इसमें धारा जब बहें आपस मिल टकराय,

घूम जाय संसार में फिर लौट लौट के आय,
तीन लोक ब्रह्माण्ड सब मन में जाय समाय,

जितना इसको भांप लो उतना बढ़ता जाय,
मन की अलग ही रीति है शब्द बांध न पाय,

मन के रोते जग रोया हँसे तो जगत हंसाय,
डोर थाम कसके मने भटक न मनवा जाय,

मन से जीता जगत कब कबहिं रही बसाय,
मन बंधन का अब तलक है न कोय उपाय,

योग मार्ग अभ्यास है जाने तनिक अभिप्राय,
नित्य करो तो भांप ले मन संग गति मिलाय,

यौगिक बंधन सत्य बस मन को मिले ठहराव,
योग प्रक्रिया से ही बस मन मिले प्रकृति भाव,

जग मन और प्रकृति का जीवन मिल संभाव,
योग मार्ग सन्मार्ग है फिर मनका मनका भाव।

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