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जन जीवन का आधार सतत
ज्योति पुंज सविता ही है
बन्जर उपवन करने वाली
जलधार सलिल सरिता ही है
जो राह दिखाती युग युग से
आक्रांत क्लांत मानव मन को
घनघोर तिमिर में आशा की
वो एक किरण कविता ही है

जो विपदाओं में सहला दे
हम उसको कविता कहते हैं
जो आकुल मन को बहला दे
हम उसको कविता कहते हैं
जिसको सुनकर रक्त शिराओं का
दौड़े लावा बनकर
जो चट्टानों को पिघला दे
हम उसको कविता कहते हैं

जो राष्ट्र का गौरव गान करे
हम उसको कविता कहते हैं
जो जन जन का उत्थान करे
हम उसको कविता कहते हैं
जिससे शोषित मानवता के
अधरों पर लाली छा जाए
जो दीपक को दिनमान करे
हम उसको कविता कहते हैं

मेरी कविता मोहताज नहीं
आडंबर और छलावो की
मेरी करता मोहताज नहीं
प्रति घातों और दुरावो की
मेरी कविता जनमानस के
अंतस को छूकर आती है
मेरी कविता के बहने से
चंदन की खुशबू आती है

मेरी कविता सुनने वाला
दिनमान चलाता है जीवन
सुबह खिलाता है कलियां
हर भोर जगाता है उपवन
मेरी कविता से उषा के
गालों पर लाली छाती है
मेरी कविता अपने दम से
अपना इतिहास बनाती है

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