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जिस तरह एक रेतीला मैदान सूरज की किरण पङते ही स्वर्ण सा चमक उठता है, उसी प्रकार उपयुक्त शिक्षा पाने पर एक बालक का भविष्य भी उजागर हो जाता है।
हर बच्चा लाल बहादुर शास्त्री बन सकता है और राष्ट्रपति कलाम भी इसी सोच को उजागर करती फिल्म आई एम कलाम 5 अगस्त 2011 को पर्दे पर आई थी।
फिल्म की कहानी शुरू होती है छोटू से जो राजस्थान के एक पिछड़े समाज से आता है जिसे पढ़ने लिखने का बड़ा शौक है और नई चीजें सीखने की लालसा भी लेकिन आर्थिक तंगी के कारण उसकी मां उसे स्कूल नहीं भेज पाती बल्कि उसे अपने मुंह बोले भाई के ढाबे पर काम पर लगा देती है।
छोटू ढाबे पर काम करते हुए भी अपनी पढ़ने लिखने की उम्मीद बनाए रखता है और पढ़ लिख कर एक बड़ा आदमी बनना चाहता है जिसे सब सलाम ठोके। तो वह ढाबे पर आने वाले लोगों से अंग्रेजी और अन्य भाषाएं सीखने लगता है। ढाबे के पास एक किला जो होटल बन चुका था वहां चाय पहुंचाते हुए छोटू की मुलाकात वहां के कुंवर रणविजय से होती है हम उम्र होने के कारण धीरे-धीरे दोनों दोस्त बन जाते हैं और छोटू रणविजय से अंग्रेजी सिखने लगता है और बदले में उसे हिंदी सिखाता है।
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टीवी पर राष्ट्रपति कलाम को सुन छोटू उनसे काफी प्रभावित हो जाता है और दिल्ली जा बड़े स्कूल में पढ़ कलाम साहब से मिलने के सपने देखने लगता है, यहां तक कि वह अपना नाम भी बदलकर कलाम रख लेता है। यह बात वह ढाबे पर अक्सर आने वाली अपनी अंग्रेज दोस्त लूसी को बताता है जो उसे फ़ारसी बोलना सिखा रही थी, वह खुद दिल्ली से थी तो वह छोटू को अपने साथ दिल्ली ले जाने का वादा करती है लेकिन फिर वादा पूरा न करने पर छोटू निराश हो जाता है।
उसकी निराशा और बढ़ जाती है जब ढाबे में उसके साथ काम करने वाला लपटन उसकी किताबें जला देता है। इस निराशा और दुख को बड़ी भावनात्मक रूप से फिल्म में दर्शाया गया है। रात के अंधेरे में छोटू रेगिस्तान के बीच जाकर जोर-जोर से रोता है और संगीत बजा अपना दुख प्रकट करता है और अपने ऊंट से कहता है कि वह दिल्ली जाएगा और बड़ा आदमी बनेगा फिर लौट कर उसे भी अपने साथ ले जाएगा।
फिल्म का क्लाइमैक्स समाज की उस सोच को दर्शाता है जो इंसान की काबिलियत उसके हैसियत और वेशभूषा से आंकता है। एक और जहाँ कुंवर रणविजय छोटू की लिखी कहानी सुना ट्रॉफी जीतते हैं तो दूसरी ओर छोटू पर चोरी का इल्जाम लगा उसे मारा-पीटा जाता है, इससे हताहत हुआ छोटू दिल्ली भाग जाता है इस उम्मीद में कि वहां जाकर वह कलाम साहब से मिलेगा। जिसके बाद रणविजय अपने पिता को पूरी सच्चाई बताता है और अपने और कलाम के बीच हुई दोस्ती के बारे में बताता है। फिर सब कलाम को ढूंढने निकल पड़ते हैं और उनकी ये तलाश दिल्ली में खत्म होती है। कलाम का पढ़ाई के प्रति समर्पण देख राजा साहब उसका भी दाखिला उसी स्कूल में करा देते हैं जिसमें रणविजय पड़ता है और इस छोटू की कहानी का सुखद अंत होता है।
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एक ओर जहां फिल्म में कर्म को नसीब से बड़ा बताया गया है तो दूसरी ओर फिल्म का अंत इस पर कई सवाल छोड़ जाता है। फिल्म की कहानी को मसालेदार ना बनाकर लेखक संजय चौहान ने इसे जमीन से जोड़े रखा है और समाज का असल आईना दिखाते हुए वास्तविकता पर जोर दिया है।
फिल्म के मुख्य किरदारों की बात करें तो छोटू का किरदार हर्ष मायर ने निभाया है और रणविजय का किरदार हसन साद ने निभाया है। साथी इस फिल्म में गुलशन ग्रोवर, पीतोबाश त्रिपाठी और बीट्रिस ऑर्डेइक्स ने भी अहम किरदार निभाया है।
डेढ़ घंटे की इस फिल्म ने जीवन में शिक्षा और सही मित्र की क्या अहमियत है यह बखूबी दर्शाया गया है। नील माधव पंडा की निर्देशन में बनी यह फिल्म दर्शकों को कहानी से लगातार बांधे रखती है। बाल कलाकार को नायक के रूप में रख आई एम कलाम समाज को एक संदेश देती है कि शिक्षा पाना देश में हर बालक का मूल अधिकार है और सपनों की कोई हैसियत नहीं होती।
इस फिल्म में कोई गीत तो नहीं है लेकिन कहानी में जान डालने के लिए संगीत का बखूबी इस्तेमाल किया गया है, खासकर तब जब रात में ढाबे पर अलग अलग देश के लोग एक साथ अलग-अलग वाद्य बजा मधुर संगीत सुनाते हैं। यह दृश्य दर्शकों के हृदय को बड़ी निर्मलता से आकर्षित करता है।
यह फिल्म बड़े पर्दे पर रिलीज होने से पहले 12 मई 2010 को 63 वें कान फिल्म समारोह के बाजार खंड में दिखाई गई थी। इस फिल्म को 2012 में फिल्म फेयर अवार्ड के साथ अब तक कुल 23 राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजा गया है।