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आज सावन की पहली बारिश ने
खेत-खलियानों को तरोताजा सा कर दिया
और मेरी पुरानी धुंधली यादों को भी
एक बार फिर जिंदा कर दिया
उन घने काले मेघों का छाना
मैं दौड़कर साथ तुम्हारे छत पर जाती थी
वो बादलों का गरजना
और मैं भागकर तुमसे लिपट जाती थी
तभी हंसकर तुम कहते थे मुझसे
"डरती क्यूं है, मैं हूं ना साथ तेरे"
और मेरा जवाब तुम्हे हर बार 
निःशब्द सा कर जाता था
क्यूंकि एक ही तो डर था मेरा कि
किसी दिन मैं खो न दूं तुम्हें
मैं जानती थी अगर हुआ ऐसा कभी
तो रूठ जाएंगी मुझसे मेरी खुशियां सभी
तुम मेरे इस डर से बखूबी वाकिफ थे ना
तभी तो मुझे यूं मेरे हाल पर छोड़ गए तुम
सोचा होगा कि रोकूंगी मैं तुम्हें
मुझे छोड़कर तुमने मेरी खुशियां छीन ली
पर तुम्हें रोककर अपने 
आत्म-सम्मान का गला कैसे घोट देती मैं
जीवन भर साथ देने के लिए हाथ थामा था तुमने
पर ज़रूरत के वक्त धोखा दे गए तुम
हर रोज मुझपर मोहब्बत की शायरी अर्ज़ करते थे
और फर्ज अदाई के समय दगाबाजी कर गए तुम
तुम जो कहते थे कि "
सिर्फ मैं ही तुम्हारे दिल में
मुझमें बसती है तुम्हारी जान 
मैं ही हूं ज़िंदगी तुम्हारी...."
हां भूल गई थी मैं
तुम्हारे ये वादे
तुम्हारी कही हर बात
पर इस सावन की झिलमिलाती बारिश ने
कुरेद दिए मेरे जख्म-ए- जज़्बात
मैं ये नहीं कहती कि
बस कहने को थी वो बातें
या झूठे थे तुम्हारे वादे
पर एक सवाल पूछना चाहती हूं तुमसे कि
"क्या ये बातें और ये खुबसूरत वादे 
एक मुझसे ही कहते थे तुम?"
हर घड़ी मेरे पास होकर
मेरे साथ रहकर भी
क्या सिर्फ मेरे थे तुम?

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