भारत की सियासत में 'हिंदी पट्टी' शब्द का उपयोग उत्तर भारत की राजनीति के लिए किया जाता है। बात अगर उत्तर भारत के सियासी समीकरण की हो तो ज़ेहन में सबसे पहले जाति, धर्म, सम्प्रदाय, समुदाय ही आता है। उत्तर भारत का सबसे बड़ा सूबा उत्तरप्रदेश जातिगत राजनीति का केंद्र हमेशा से रह है। चूंकि 80 लोकसभा सीटें होने के कारण तमाम सियासी पार्टियों की टकटकी नज़र प्रदेश के वोट बैंक को साधने की होती है। राजनीति में एक कहावत है कि केंद्र की राजनीति का रास्ता उत्तरप्रदेश से ही होकर गुजरता है, यही कारण है उत्तरप्रदेश जीतने की लिए पार्टियां साम दाम दंड कैसे भी अपना झंडा यहां गाड़ने की कूवत में रहते हैं।
उत्तरप्रदेश में साल 2022 में विधानसभा के चुनाव होने है, जिस कारण से सभी विपक्षी पार्टियों ने अभी से अपनी कमर कसना शुरू कर दिया है। हालांकि राम मंदिर भूमि पूजन के बाद ये कयास लगाए जा रहे है कि 2022 का चुनाव भाजपा के लिए थाली में परोसा हुआ भोजन मात्र है। यही कारण है सपा और बसपा जैसे मज़बूत क्षत्रप जो फिलहाल बैकफुट पर नज़र आ रहे हैं। भाजपा को आगामी चुनाव में टक्कर देने की लिए मंदिर की सियासत की काठ को मूर्ति बनाने का वादा कर चुनाव साधने की जुगत में लगे हैं।
मूर्तियों की सियासत ने प्रदेश में तूल पकड़ा जब समाजवादी पार्टी की एक बैठक में भगवान परशुराम की 108 फ़ीट ऊंची प्रतिमा बनाने का वादा सपा ने किया। इस घोषणा के चंद घण्टों बाद ही प्रदेश में मूर्तियों की सियासत को जन्म देने वाली बसपा सुप्रीमो मायावती ने सपा को काउंटर करने के लिए बाकायदा एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के आयोजन कर कहा,"प्रदेश में हमारी सरकार बनते ही हम भगवान परशुराम की 108 फ़ीट से भी ज्यादा ऊंची मूर्ति बनवाएंगे साथ ही उनके नाम पर अस्पताल और विद्यालय भी बनवाएंगे"।
प्रदेश की दो सबसे बड़ी पार्टियों के मूर्ति विज़न को सुनकर तो ऐसा लगता है मानो प्रदेश में बेरोजगारी,शिक्षा,स्वास्थ्य,किसान,गरीबी कोई मुद्दा है ही नहीं। सब मंगलमय है, जबकि खुद सरकारी आंकड़े बताते है प्रदेश की क्या हालत हो चुकी है। खेर, नेताओं को जन सरोकार से क्या मतलब रह गया है। उन्हें तो जनता की ज़रूरत मात्र वोट के लिए है। जिसके लिए अब यूपी में सियासत की बिसात पर परशुराम की मूर्ति का खेल बिछाया जा रहा है। सवाल ये है कि आखिरी भगवान परशुराम की याद सियासी पार्टियों को क्यों आयी?
भगवान परशुराम विष्णु जी के छठे अवतार माने जाते हैं। मान्यता के अनुसार परशुराम जी का जन्म उत्तरप्रदेश में हुआ था। राजनीतिक पंडितों का कहना है कि जब से भाजपा सत्ता में आई है ब्राह्मण समुदाय पर हमले और हत्याओं के मामले बढ़ गए हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार 2 साल में 500 से अधिक ब्राह्मण हत्याएं प्रदेश में हुई हैं। इस संबंध में योगी सरकार ने कोई कड़े कदम नहीं उठाए जबकि साल 2017 में भाजपा ब्राह्मण वोट के चलते ही सत्ता पर आसीन हुई थी। यूपी में लगभग 12 प्रतिशत ब्राह्मण आबादी है। जबकि कई विधानसभा सीटों पर 20 प्रतिशत है जिन्हें जीते बिना प्रदेश की सत्ता पर काबिज होना लगभग नामुमकिन है।
यही कारण है कि 30 साल से प्रदेश में सत्ता का सूखा झेल रही कांग्रेस ने जतिन प्रसाद के रूप में ब्राह्मण चेहरे को आगे कर उनकी अगुवाई में "ब्राह्मण चेतना संवाद" शुरू किया है। इस कार्यक्रम के अंतर्गत वह ब्राह्मण हत्याओं के मामला समुदाय के बीच रख रहे है और सरकार को लगातार इस मुद्दे पर घेरते आ रहे हैं।
यूपी में बिना जातीय समीकरण साढ़े राजनीति की सीढ़ियां चढ़ पाना मुश्किल है। प्रदेश में ओबीसी समुदाय विशेषकर यादव, कुर्मी जैसी बड़ी जातियां सपा का वोट बैंक मानी जाती है। वहीं दलित बसपा का वोट बैंक है। मुस्लिम समुदाय सपा और बसपा के बीच फंसा हुआ है। वहीं ब्राह्मण भाजपा के करीब माना जाता है। जबकि कांग्रेस के पिछले चुनाव नतीजे देखते हुए लगता है वो कहीं खेल में नहीं है पर राजनीति में किसी को कम आंकना सबसे बड़ी भूल होती है।
हालांकि,यूपी की परंपरा है कि यहां हर पांच साल में सत्ता परिवर्तन होता ही रहा है। जहां भाजपा इस मिथ को तोड़ सत्ता में बने रहने के लिए राम मंदिर को हथियार बना लड़ने की तैयारी कर रही है तो सपा और बसपा अपने परम्परागत वोट जिन्होंने 2017 में भाजपा को वोट दिया उन्हें भगवान परशुराम के माध्यम से छिटके हुए वोट बैंक को साधने की कोशिश में हैं।
अंत में मेरा सवाल प्रदेश की जनता से है कोई एक ऐसा चुनाव बताइए जब पार्टियों ने मुद्दों पर चुनाव लड़े हों? या आपने मुद्दों पर वोट किया हो? जबकि पार्टियों से यही सवाल है सबने सत्ता का सुख भोगा है अगर भगवान परशुराम से इतनी ही आस्था थी तो अपने कार्यकाल में मूर्तियां या मंदिर क्यों नहीं बनवाये?