क्या आज़ादी फेसबुक पर तिरंगे की फोटो डालकर हेप्पी इंडिपेंडेंस लिखना आज़ादी है? व्हाट्सअप पर तिरंगे वाली डीपी नाम के पहले अक्षर के साथ लगाना, स्टोरी लगाना या फारवर्ड मैसेज करना क्या आज आज़ादी के यही मायने रह गए है? तो आपको एक दिन की ये आज़ादी मुबारक हो।

गनीमत है, आज़ादी की लड़ाई के वक़्त ये फेसबुक, व्हाट्सएप्प नहीं था, होता तो सोचो भगत सिंह, आज़ाद साहब, बोस, तमाम युवा क्रांतिकारी आज़ादी की लड़ाई सोशल मीडिया पर लड़ते तो हम आज भी किसी चार्ल्स, रोबर्ट की जी हुजूरी कर रहे होते।

इस आज़ादी की कीमत जाननी है तो आज़ादी से पहले जो इस मिट्टी के लिए लड़े उनके संघर्षों से जानो, और खुद से सवाल करो हर साल लाल किले से बताई जाने वाली आज़ादी की कीमत क्या वही आज़ादी है? उनसे पूछिये आज हमें आज़ादी की कीमत बताने वालों का आज़ादी के आंदोलन की भूमिका में क्या इतिहास रहा है? अगर नहीं पूछ सकते तो खुद से पूछिए क्या यही आज़ादी है?



74 बरस की आज़ादी पर आज़ादी का भाषण लाल किले की प्राचीर से सुनने में कितना गदगद होते है, अगले ही पल ट्विटर या फेसबुक पर आज़ादी का जश्न मनाने लगते है, बधाइयां देने लगते है। आज़ादी का जश्न क्या होता है ज़रा बाढ़ में फंसी मुल्क की 50 लाख से ज्यादा अवाम से पूछो? उन पैदल गए मज़दूरों से पूछो जिन्होंने सड़क पर कानून के लाठी डंडे खाये? उन बच्चों से पूछो जिनके पापा घर ना आये? फुटपाथ पर सोने वालों से पूछिये आज़ादी क्या है? पैसे ना होने की वजह से इलाज ना मिल पाना, थाने में मुकदमा ना लिखा जाना, न्याय ना मिल पाना,क्या यही आज़ादी है?



वाकई हम आज़ाद है तो मेरे कुछ सवाल है? आज़ाद भारत में सरकार की आलोचना करने पर राष्ट्रद्रोह लगाकर जेल क्यों? अगर ऐसा नहीं है तो खुद से पूछिए डॉक्टर कफील जेल में क्यों? बोलने की आज़ादी पर सज़ा क्यों? अगर ऐसा नहीं है तो प्रशांत भूषण दोषी क्यों? सच दिखाने पर पत्रकार पर मुकदमे क्यों? सवाल पूछने वाले नौकरशाह पर मुकदमे क्यों? आंदोलन करने वालो पर लाठी डंडे क्यों?

सही मायनों में आज के समय में हमारी आज़ादी की कीमत मुर्दों के भेष में जिंदा रहना है क्योंकि आप सवाल नहीं पूछते, आंखों से गलत देखकर भी मुँह मोड़ लेते है, तो आप आज़ाद भारत के गुलाम है। मुझे गुलामी ना कभी पसंद थी ना होगी। हमारी आज़ादी कोई त्योहार नहीं हो सकती जिसे हम साल में एक बार मनाएं। सैकड़ों कुर्बानी देकर मिलने वाली आज़ादी की कीमत इतनी छोटी नहीं हो सकती।

भगत सिंह के सपनों का भारत नहीं बना सकते तो अपनी आज़ादी का जश्न तभी मनाइए जब इस गरीब के पैरों में एक जोड़ी चप्पल या जूता हो, तीन वक्त की रोटी हो।



पुरखों की कुर्बानी की कीमत इतनी सस्ती मत लगाइए की कोई अपने फायदे के लिए हमें धर्म में बांट दें, हमे आपस में लड़ा दे, दुश्मन बना दें, हमारे समाज में ज़हर घोल दे। 5 किलो गेंहू या चावल आज़ादी की कीमत नहीं हो सकती।

अपनी आज़ादी की कीमत लगानी ही है तो विधायकों जितनी लगाओ की एक बार बिको तो उम्र भर खाओ।

जय हिंद।

आपको स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।

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