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अटल बिहारी वाजपेयी एक कवि, पत्रकार, सवेंदनशील इंसान, जन नेता और प्रधानमंत्री के तौर पर उनको किस तरह याद किया जाये. जाहिर सी बात है की वे बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे उन्हें केवल एक फ्रेम में फिट किया नही जा सकता. 25 दिसम्बर 1924 को मध्यप्रदेश के ग्वालियर में जन्मे वाजपेयी ने तारीख़ यानी इतिहास में जो अपनी जगह बनाई वहां दूसरों का पहुंचना लगभग नामुमकिन सा है. उनकी प्रारम्भिक शिक्षा भी ग्वालियर में ही हुई. जब वाजपेयी 14 वर्ष के थे तब एक बैठक में हिस्सा लेने गए थे तब एक संगठनकर्ता जिनका नाम भूदेव शास्त्री था उन्होंने ने वाजपेयी से पूछा “शाम को क्या करते हो?” वाजपेयी का जवाब था “कुछ खास नही.” फिर शास्त्री ने कहा “तुम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ(आर. एस. एस) की शाखा क्यों नहीं आते?” वाजपेयी ने उनका सुझाव तुरंत मान लिया और वो नियमित रूप से संघ की साखा में जाने लगे. हालाकि तब वो घर वालों को बिना बताए संघ की साखा में जाया करते थे. 

उसी दौरान नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ऑफिसर्स ट्रेनिंग कैंप को वो देखने गए. जहाँ उन्होंने ओ.टी.सी के समापन समारोह में हिस्सा भी लिया.जहाँ उनकी मुलाकात तब के सरसंघचालक हेडगेवार से हुई जो डॉक्टर जी के नाम से लोकप्रिय थे. 1941 में वो ओ.टी.सी में शामिल हुए और 1947 तक वाजपेयी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए शाखा स्तर पर काम किया और ये भी कितना रोचक है कि वो पूरा दिन साखा चलाते और शाम को काव्य पाठ करते तथा लेखकों के सानिध्य में समय बिताते. 15 अगस्त 1947 को देश आजाद हुआ और संगठन ने ‘राष्ट्रधर्म’ नाम के पत्रिका की शुरुआत की और उसके सम्पदाक बने अटल बिहारी वाजपेयी. फिर आया 14 जनवरी 1948 का दिन जब सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है उसी दिन संघ ने साप्ताहिक अखबार ‘पाञ्चजन्य’ की शुरुआत की और उसके सम्पदाक का जिम्मा वाजपेयी को मिला.


दीनदयाल उपाध्याय जो की 1951 में श्यामाप्रसाद मुखर्जी द्वारा स्थापित जनसंघ के अध्यक्ष थे वाजयेपी से बहुत प्रभावित थे. वे वाजपेयी के काम को ‘राष्ट्रधर्म’ और ‘पाञ्चजन्य’ रूप में देख चुके थे और उनसे काफी प्रभावित थे. फिर आया 1953 का साल जब जून में श्यामाप्रसाद मुख़र्जी का निधन हो गया जिसकी वजह से पार्टी पर गहरा संकट आ गया. उसी वर्ष लखनऊ की लोकसभा सीट भी खाली हो गई,क्योंकि वहाँ से सांसद विजयलक्ष्मी पंडित को संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का राजदूत बनाकर भेज दिया गया. 

नतीजतन चुनाव का एलान हुआ और जनसंघ ने 28 वर्ष के वाजपेयी को अपना उम्मीदवार बनाया. उनका ये पहला चुनाव था और उन्होंने कड़ी मेहनत की और 150 से भी अधिक जनसभाओं को सम्बोधित किया. लेकिन उन दिनों कांग्रेस अपने चरम पर थी यही वजह की वाजपेयी ना सिर्फ चुनाव हारे बल्कि तीसरे स्थान पर भी रहे थे. उन्हें 34000 वोट मिले थे और उस सीट से कांग्रेस उम्मीदवार एस.आर नेहरू की जीत हुई थी. लेकिन जब 1957 का लोकसभा चुनाव आया तब दिन दयाल चाहते थे कि हर हाल में वाजपेयी लोकतंत्र के मंदिर यानी संसद में पहुँचे यही वज़ह की उन्होंने ने वाजपेयी को तीन जगह उम्मीदवार बनाया गया. वह जगह थी लखनऊ, मथुरा,और बलरामपुर. चुनाव हुआ नतीजे आये लखनऊ से एक बार वो फिर हारे, मथुरा से जमानत जब्त हुई लेकिन वो बलरामपुर से चुनाव जीत गए. उस चुनाव में जनसंघ को कुल चार सीटें मिलीं और उन्हें संसदीय दल का नेता बनाया गया. वाजपेयी सदन में बहस के दौरान खूब बोलते उनकी भाषा, वाक्यपटुता, बोलने का अंदाज, भाव-भंगिमा कुछ इस तरह की नेहरु के मन में भी उनकी एक विशेष जगह बन गई थी. साठ के दशक में ये कहा जाता था कि सदन में दो ही लोग बोलते हैं हिंदी में अटल बिहारी वाजपेयी और अंग्रेजी में हिरेन मुख़र्जी. 

3 अप्रैल 1962 को वो पहली बार राज्यसभा के लिए चुने गए क्योंकि सुभद्रा जोशी से वो लोकसभा चुनाव हार गए थे. अगस्त 1962 में वाजपेयी एक महत्वपूर्ण विधयक पेश किया, जिसमें उन्होंने 1956 के एक्ट में संशोधन की अपील की, ताकि कम्पनियों को राजनीतिक दलों को चंदा देने से रोका जाए.उन्होंने ने सदन में ये दलील दी कि कम्पनियों को चलाने वालों को शेयर धारकों का पैसा राजनीतिक दलों पर खर्च करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है. आखिर कम्पनियां दलों को पैसा देना क्यों चाहती हैं. कम्पनियों की स्थापना वित्तीय की पूर्ति के लिए की जाती है उन्हें चंदा देने की कोई जरूरत नहीं है. उन्होंने आगे कहा कि पार्टियां लोगों का नेतृत्व करती हैं इसीलिए पार्टियों को पैसे के लिए लोगों के पास जाना चाहिए. इस विधेयक पर सदन में जोरदार चर्चा हुई लेकिन दुर्भाग्य से 27 नवंबर 1964 को इसे खारिज कर दिया गया. वो 1967 में एक और महत्वपूर्ण विधयक लेकर आये जो संविधान में संसोधन कर जम्मू कश्मीर से धारा 370 को हटाने के लिए था. इस पर भी सदन में दो बार चर्चा हुई लेकिन वोटिंग में वाजपेयी के सुझाए संसोधन की हार हो गई. और वाजपेयी कई विधयेक लेकर आये सब पर बात करना यहाँ सम्भव नहीं. इसके बाद सत्तर का दशक इंदिरा गांधी की सत्ता में आई फिर एमरजेंसी का लगना वाजपेयी की गिरफ्तारी हुई इसी दौरान दिल्ली में एक जनसभा को सम्बोधित करने का जिम्मा वाजपेयी को मिला तब इंदिरा गांधी ने ये फैसला किया जिस दिन ये सभा होगी उस दिन उस वक्त की सुपर हिट फिल्म बॉबी दूरदर्शन पर दिखाई जाएगी ताकि वाजपेयी के भाषण में लोग कम इकट्ठा हो सके लेकिन उससे कोई फर्क नहीं पड़ा उस जनसभा लाखों लोग आए. 1977 में एमरजेंसी हटी चुनाव हुआ. मोरारजी देसाई के नेतृत्व में आज़ाद हिंदुस्तान में पहली बार गैर कांग्रेस की सरकार बनी और इसमें वाजपेयी को विदेश मंत्री का पद मिला. सरकार ज्यादा दिन तक चली नही फिर कुछ दिनों के लिए चौधरी चरण सिंह देश के प्रधानमंत्री बने इसी बीच जनता पार्टी के लोगों पर दोहरी सदस्यता का आरोप लगने लगा. वाजपेयी हों ये उनके साथी संघ को छोड़ना नहीं चाहते थे यहीं वजह की 5 अप्रैल 1980 को नई दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में एक नई पार्टी की नींव पड़ी जिसका नाम रखा गया भारतीय जनता पार्टी.


अब बात वाजपेयी के प्रधानमंत्री बनने की, वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार भी नाटकीय ढंग से घोषित किया गया दरअसल ये एलान 1995 में मुंबई में होने वाली बैठक में हुआ जब आडवाणी बिना किसी को बताए यहाँ तक की न संघ को खबर थी न वाजपेयी की उन्होंने मंच से वाजपेयी के नाम का एलान कर दिया लोग तालियां बजाने लगे और वाजपेयी आवक रह गए. वो बिल्कुल इसके लिए तैयार नही थे उन्होंने कहा पहले मुझे क्यों नहीं बताया. आडवाणी ने जवाब दिया अगर बता देता तो आप राजी नहीं होते. फिर कैलेंडर बदला साल आया 1996 यानी चुनावी वर्ष भारत को आर्थिक उदारीकरण देने वाले तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव को एहसास हो गया था कि अब वो सत्ता में नही लौटेंगे पहले ही कई दाग उनकी दामन पर लग चुके थे. 

बहरहाल चुनावी तारीखों का एलान हुआ और वाजपेयी ने एक बार फिर लखनऊ से चुनाव लड़ने का फैसला किया. चुकी वह अपने संसदीय क्षेत्र में मौजूद नही थे (क्योंकि वो पूरे देश में प्रचार कर रहे थे) इसीलिए एक मूर्तिकार को बुलाया गया जिसने वाजपेयी की प्रतिमा बनाई उसे पूरे संसदीय क्षेत्र में घुमाया गया ताकि लोग उनकी प्रतिमा को देख सके इसका कारण एक ये भी था कि उस वक़्त के फ़िल्म स्टार राज बब्बर उनके प्रतिद्वंद्वी थे खैर चुनावी परिणाम आये वाजपेयी की जीत हुई उन्होंने कुल 52 प्रतिशत वोट मिले. उस चुनाव में बीजेपी भी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी उसे कुल 161 सीट मिले तो वही कांग्रेस 140 सीटों पर सिमट गई. उस वक़्त के राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने उन्हें सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया और 16 मई 1996 को वाजपेयी पहली बार प्रधानमंत्री बन गए. चुकी बहुमत के लिए ये 272 सीटों की जरूरत थी और यही वजह की वाजपेयी को 13 दिन में ही इस बात का इलहाम हो गया कि वो बहुमत सिद्घ नही कर पाएंगे. हालाकि शिवसेना, अकाली दल, समता पार्टी का समर्थन बीजेपी को हासिल था लेकिन फिर भी ये जादुई आंकड़ा से दूर था कांग्रेस ने पहले ही बीजेपी को सत्ता से बाहर रखने के लिए लेफ्ट से हाथ मिला लिया था. फिर वाजपेयी ने सदन में वो ऐतिहासिक भाषण दिया और प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. उसके बाद 1998 का चुनाव एक बार फर मामूली बढ़त के साथ वाजपेयी प्रधानमंत्री बने लेकिन एक सरकार भी महज 13 महीने ही चली क्योंकि इस बार ए.आई.डी. एम.के ने समर्थन वापस ले लिया नतीजतन 17 अप्रैल को सदन में शक्ति परीक्षण हुआ सरकार के समर्थन में जहाँ 269 वोट मिले वही विपक्ष में 270 यानी सरकार एक वोट से गिर गई.वाजपेयी बहुत निराश हुए हताश हुए उनको जानने वाले बताते हैं कि उनकी आँखें उस दिन नम थी. लेकिन ये वोट किसका था कुछ लोग कहते हैं कि ये वोट कांग्रेस के नेता और उस वक्त ओड़िसा के मुख्यमंत्री गिरिधर गमांग का था जिन्होंने ने मुख्यमंत्री बनने के बाद भी लोकसभा के पद से इस्तीफा नही दिया था. लेकिन जब तीसरी बार अपनी सहयोगीयों(NDA) के समर्थन से जब वाजपेयी प्रधानमंत्री बने तब उन्होंने अपना पूरा कार्यकाल पूरा किया. आइए अब एक नज़र उनके प्रधानमंत्री के पद पर रहते उनके कार्यकाल पर डाल लेते हैं. उन्होंने ऐतिहासिक परमाणु परीक्षण किया.


19 फरवरी 1999 को पंजाब स्थित बाघा बॉडर को बस से पार कर पाकिस्तान गए. उस बस का स्वागत उस वक्त पाकिस्तान के वज़ीर-ए-आज़म नवाज़ शरीफ़ ने किया वो जिस बस में सवार हो कर गए उसे दिल्ली से लाहौर तक रोज चलना था. लेकिन ऐसा हो न सका क्योंकि पाकिस्तान की सेना ने कुछ ही दिन के अंदर नापाक हरकत की और कारगिल की चोटियों पर घुसपैठ कर कब्जा कर लिया और फिर क्या 19 मई 1999 को वायु सेना की मदद से ‘ऑपरेशन विजय’ शुरू कर 26 जुलाई 1999 तक उन चोटियों पर उन पाकिस्तानी घुसपैठियों को हटाकर भारत ने अपने सैनिकों को बैठा दिया. लेकिन एक चुनौती खत्म ही हुई थी कि दूसरी चुनौती क्रूर रूप लिए सामने खड़ी थी. कैलेंडर में तारीख थी 24 दिसम्बर यानी वाजपेयी के जन्मदिन से एक दिन पहले, काठमांडू से नई दिल्ली आ रहे इंडियन एयरलाइंस के विमान (IC814) जिसमे 178 यात्री सवार थे को हाईजैक कर लिया गया. पाँच हथियारबंद आंतकवादीयों ने विमान को कब्जा में ले लिया. उसे उन आंतकवादियों ने कंधार में उतारा और भारत के जेल में बंद छत्तीस आतंकवादियों को रिहा करने की मांग की जाहिर सी बात है उस वक़्त प्रधानमंत्री

वाजपेयी के लिए ये कठिन चुनौती थी. आखिर भारत को उन आतंकवादियों को छोड़ना पड़ा. जिसमे एक नाम मसूद अजहर का भी है. इन सबसे इतर वाजपेयी जी ने कई महत्वपूर्ण योजनाओं की ना सिर्फ नीव रखी बल्कि उन्हें आयाम तक भी पहुचाया. उनकी सबसे पहली योजना थी नॉर्थ-साउथ और ईस्ट-वेस्ट कॉरीडोर. इस योजना की शुरुआत 1998 में हुई थी. इसके तहत उत्तर में श्रीनगर से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी और पूर्व में असम के सिलचर से लेकर पश्चिम में गुजरात के पोरबंदर को जोड़ा जाना था. इस योजना के तहत कुल 7142 किलोमीटर लंबी सड़क बननी थी. 31 मार्च 2018 तक 6875 किलोमीटर लंबी सड़क बन गई थी. दूसरी सबसे बड़ी योजना स्वर्णिम चतुर्भुज योजना थी, जिसके तहत देश के चार प्रमुख महानगरों यानी कि उत्तर में दिल्ली, दक्षिण में चेन्नई, पूर्व में कोलकाता और पश्चिम में मुंबई को जोड़ा गया. इस योजना की शुरुआत 2001 में हुई थी. इस पूरी परियोजना की लंबाई 5846 किलोमीटर है, जो देश के 13 राज्यों से होकर गुजरता है. और फिर 2001 में उन्हों ने सर्व शिक्षा अभियान नाम की एक योजना लॉन्च की. इस योजना का मुख्य उद्देश्य था 6 से 14 साल के बच्चों को मुफ्त में शिक्षा देना. इसके लिए वाजपेयी सरकार को भारतीय संविधान में 86वां संशोधन करना पड़ा. इस संशोधन के बाद देश के हर बच्चे को पढ़ने का संवैधानिक अधिकार मिल गया. इसी वजह से इस योजना की टैग लाइन रखी गई थी कि सब पढ़ें-सब बढ़ें.


वाजपेयी प्रखर राजनीतिक कौशल के स्वामी थे, लेकिन वे अपने सलाहकारों की बातों में आकर एक गलती कर बैठे और 2004 के चुनाव में निर्धारित अवधि से पहले की चुनाव में उतरने का फैसला कर लिया. उनके सलाहकारों को लगता था कि वाजपेयी की ओर से उठाए गए कदमों से अर्थव्यवस्था उछाल पर है और चारो तरफ ‘फील-गुड-फैक्टर’ है लेकिन जब 2004 के चुनावी परिणाम आये तो वे सब लोग गलत साबित हुए. वाजपेयी को सत्ता गवानी पड़ी और उसके बाद आर. एस. एस ने तंज में कहा ‘पार्टी के पास व्यक्ति और विकास है लेकिन विचारधारा नही है.’ एक बात यहां बताते चलूं की वाजपेयी की खूबसूरती इस में थी कि वे आर.एस.एस को लेकर सूझ-बूझ के साथ तो तरफा सोच बनाये रखते थे. 

वे आर.एस.एस के साथ भी था और कभी-कभी खिलाफ भी. यह उनकी प्रबंधन कला थी जिसे उन्होंने ने पूरे आत्मविश्वास के साथ निभाया. फिर उन्होंने एक और सूझ बूझ वाला निर्णय लिया अपने जन्मदिन के ठीक पांच दिन बाद और 2006 के शुरू होने से दो दिन पहले उन्होंने राजनीतिक सन्यास ले लिया. 2009 के बाद उनका स्वस्थ लगातार गिरने लगा पहले घुटनों में दिक्कत आई फिर पक्षघात ने इतना प्रभावित किया की वो बोलने में असमर्थ हो गए. 2014 में देश की सत्ता बदली मोदी की नेतृत्व में दस वर्ष बाद एक बार फिर NDA सत्ता के लौटी और उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान देने का फैसला हुआ और 27 मार्च 2015 को उनके निवास स्थान पर ही तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने उन्हें यह पुरस्कार दिया. फिर आई 16 अगस्त 2018 की शाम सुर्यास्त करीब था और उसी समय भारतीय राजनीति का एक चमकता हुआ सूर्य भौतिक रूप से अस्त हो गया दिल्ली के एम्स ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर कहा कि पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी ने शाम पाँच बजकर पाँच मिनट पर अंतिम सांस ली.


ऐसे महान राजनेता, साहित्यकार, समाज सुधारक एवं पत्रकार 'अटल बिहारी वाजपेयी' की पुण्यतिथि पर कोटि कोटि नमन. लोकतांत्रिक आदर्शों के प्रति वाजपेयी की प्रतिबद्धता हम सभी के लिए प्रेरणास्रोत हैं. वे देश में राजनीति के नये युग की शुरुआत करने वाले ऐसे व्यक्तित्व थे, जिन्होंने अपना संपूर्ण जीवन राष्ट्र और समाज की सेवा के लिये समर्पित किया. राष्ट्रीय जीवन में उनकी अद्वितीय भूमिका को सदैव आदरपूर्वक याद किया जाता रहेगा.

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