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आखिर क्यों! सहे अत्याचार सबका,
जब उसे है खुद पर नाज।
खुद को वह ना समझे बोझ
किन्तु इसका एहसास करती रोज,
हर पल हर क्षण जीती इसी उम्मीद में
कहती है खुद से रोज वह!
सब ठीक होगा?...सब ठीक होगा?
अनजान है वह खुद से भी,
करती बहाना वह खुद से ही।
दर्द सहती रोज वह पर
कुछ ना कहती, कुछ ना कही
फिर भी यह दुनिया उसे
यह है कहती-
करती ही क्या?...करती ही क्या?
एक भी दिन घर खिलता नहीं
उसके बिना; एक पुष्प भी
उगता नहीं उसके बिना।
आंगन की तुलसी भी कहती
हो गई बंजारन तेरे बिना
फिर भी यह दुनिया कहती है उसे
करती ही क्या?...करती है क्या?
वह है नारी साक्षात जननी,
अपने अन्दर है जीवन रखती।
पुरुषों सी कुटिलता उसमें कहाँ
वह सदैव सृजन करती,
घर की तुलसी वो है कहलाती।
फिर भी दुनिया है कहती उसे
करती ही क्या?...करती ही क्या?

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