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क्यों देखते हो कृष्ण तुम अपनी आंखों से?
क्या विलुप्त हो गया दायित्व तुम्हारा महाभारत तक?
क्या नग्न होती इस स्त्री का होता ना कोई मान?
क्या अब कोई सखी नहीं तुम्हारी इस संसार में?
क्या रेशम की राखी का अब कोई मोल नहीं?
क्या द्रौपदी की रक्षा को अब न तुम आओगे?
क्या अबला का सहारा तुम ना बन पाओगे?
क्या 'राधे राधे' का अब कोई मोल नहीं?
क्या तुम्हारी आस्था का कोई मोल नहीं?
क्या लोचनो के पवित्र अश्रु का अब कोई मोल नहीं?
क्या मीरा के प्रेम का अब कोई मोल नहीं?
क्या मंदिरों के गर्भगृह की प्रतिमा में अब तुम तो नहीं?
क्या बांसुरी की मधुर झंकार में अब तुम नहीं
क्या गीता के वचनों को व्यक्त करने को अब तुम नहीं?
क्या 'यदा यदा ही धर्मस्य' बोलने को अब तुम नहीं?
किंतु हो,
तो क्यों ऐसा
घृणित, अकल्पनीय, अस्वीकार्य भर्त्सना के योग्य दृश्य?
क्यों हृदय के सहस्रो टुकड़े करता दृश्य?
क्यों मानव होने पर कलंक का बोध कराता दृश्य?
क्यों चीखती स्त्री को पीड़ा दिलाता दृश्य?
क्यों स्त्री को बलि का बकरा बनता दृश्य?
क्यों पुरुषों के खोखले समाज में पिसती स्त्रियाँ?
क्यों स्त्रियों के जननांगों को छूते समय
नहीं याद आती अपनी मां?
क्यों विकृत मानसिकता की परिपूर्ण लोग घूमते इस संसार में?
क्यों सरकारें अंधी हो जाते अपने निहित स्वार्थ में?
क्यों सरकारी तंत्रों की कमर चरमरा जाती?
क्यों पुलिस मूकदर्शक बन जाती है?
क्यों लोग गोलियों से भून दिया जाते आपस में?
क्यों स्त्री को हर बार मोल चुकाना पड़ता?
क्यों हम सब दो चेहरे लेकर जीते?
क्यों एक चेहरा सड़ा हुआ और एक को लिपते फिरते?
क्यों एक बार फिर धर्म की स्थापना को नहीं आते?
क्यों तुम नहीं आते?
क्यों कृष्ण, आखिर क्यों?