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मैं वह नदी नहीं ,
जो छु कर निकल जाऊं।
मैं वह तालाब हूं,
जो एक जगह ठहर जाती हूं।
अगर मिलना हो मुझसे, हे मुसाफिर
तो आ जाओ जहां खिला हो अंबुज।
जहां छायि हुई हो, हरियाली मृदा की।
जहां वक एकाग्रचित मन से बैठा हो
जहां चिड़ियों की चहचहाहट से
गूंज उठा हो आसमां
जहां नायक और नायिका के मिलन सें
इंद्रधनुष भी खिलखिला उठे हो
जहां एक आवाज पर
पृथ्वी भी शर्मा जाए ।
जानना चाहते हो मैं कौन हूं
तो सुनो मैं वो प्रलय हूं
जिसके आने से तुम
अपनों को खो देते हो
मैं वो डंकार हूं,
जिसके चिल्लाने पर,
तुम हो जाते हो भयभीत।
मैं वह हवा हूं
जिसके बिना तुम्हारा कोई अस्तित्व नहीं है
मैं जल हूं जो एक प्यासे की प्यास बुझाती हूं,
मैं हवा हूं, जल हूं, वृक्ष हूं
एक शब्द में बोलूं तो मैं प्रगति हूं।
हे मानुष दया कर
इस सुंदर सी कला पर
जिसको ईश्वर ने बनाया,
सबकुछ दिया हैं उसने,
फिर भी तू करता नही
सदुपयोग उसका,
भागता फिरता है तू
यहां से वहां न जाने किस खोज में,
करता रहता है
इस प्रगति का नाश ,
जगत की होड़ में ।
अब रुक जा ठहर जा,
अभी भी कुछ बिगड़ा नही,
साथ मिलकर चलते रहेंगे यूं ही
जब तक जीवन की है आस।

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