आज का दिन बहुत ख़ास चल रहा था मैं ख़ासकर अपनी बहन व परिवार से मिलने फ़रीदाबाद पहुँचने ही वाला था । मेट्रो के गेट से जैसे ही बाहर निकला तो सामने ही सीढ़ियों पर एक छोटी सी बच्ची मिल गयी ।फटी सी फ्रोक और एक हाथ की उँगलिया मुँह में और दूसरे में दो चार सिक्के , सिर का मुंडन हो रखा था । पास में आकर “भैया ,कुछ पैसे दे दो “ ।मैं पुरी रात ना सोने के कारण ऊँगते हुए चल रहा था लेकिन दिमाग़ ने आस पास की चीज़ों की ज़्यादा फ़िक्र नहीं की लेकिन तभी मेरी नज़र उसके हाथ में धागे जैसी पतली सी राखी दिखाई पड़ी और दिमाग़ पर एक विचार ने तेज़ी से चोट की मैंने उससे पुछा कि हाँ क्या कह रहे थे ?” भैया कुछ पैसे दे दो “तोतली अवाज में अस्पष्ट सा उसने जवाब दिया । मैंने पुछा “ये राखी “क्यूँकि इतनी दूर राखी बँधवाने ही तो आए थे । उसने जैसे अपनी सम्पति के छीनने का डर था वो छुपा ली । फिर मैंने नींद परेशान शरीर को रेलिंग का आराम देते हुए पुछताछ शुरू कि क्या करोगे पैसे का तो उसने फिर तोतली आवाज़ में जवाब दिया कि आटा ,चावल लाएँगे । जवाब में कोई ग़लती नहीं थी लेकिन उम्र के हिसाब से जवाब बहुत परिपक्व था जैसे किसी ने उस सुंदर मूर्त को ऐसे जवाब देने के लिए तैयार किया हो । फिर मैंने पुछा कि मम्मी पापा कहाँ है ? उसने फ़रीदाबाद के बड़े movie माल के बाज़ू में इशारा करते हुए तुरंत जवाब दिया “मम्मी , वहाँ घर पर है ’’मैंने फिर पुछा “और पापा ? “ उसने देरी से जवाब दिया “वो भी घर पर है “ उस देरी से लगा जैसे उसे इस पुरुषवादी समाज के श्रम विभाजन की समझ हो । मैंने पुछा “school जाते हो ? तुम्हें पैसे लेने के किसने बोला ?” उसने सिर्फ़ जवाब दिया “नहीं “ और वहाँ से नाराज़ होकर भाग गयी । आप शायद मुझसे बहुत सकारात्मक कहानी की उम्मीद लगा रहे होंगे लेकिन मैं कोई court poet नहीं हूँ जो सच्चाई को सत्ता को ख़ुश करने के लिए सकारात्मक झूठ में परिवर्तित कर दे या ना मैं कोई वरूण परूथि था जो पैसों की गड्डी उनको थमाकर उनके साथ एक video viral कर देता ।जब पूरी तरह से बाहर निकलकर उसके किए हुए इशारे की तरफ़ देखा तो मॉल के चारों तरफ़ शहर के सिवरेज पर बसी हुयी झोपड़ियाँ दिखायी दी लेकिन शायद उनके लिए तो शहर में ऐसा था जैसे यमुना के किनारे उन्हें ताजमहल बसा रखा हो ।कुछ क़दम आगे ही बढ़ा था तो एक बच्चा रहड़ी पर बच्चे को खाते हुए लोगों से बिरयानी माँगते देखा ।मन में चलते चलते बाबा नागार्जुना का ख़्याल आया जिसने इन समस्याओं पर लिखा था कि जब मैं भूखे को खाना देता हूँ तो वो मुझे संत कहते है लेकिन जब मैं यह सवाल करता हूँ कि उनके पास भोजन क्यूँ नहीं है तो वो मुझे communist कहते है ।मैं उदास मन से आगे बढ़ा जा रहा था जैसे ही railway station के ओवरब्रिज पर पहुँचा तो आज़ादी की सुबह से बेख़बर बहुत लोग भीख माँगने लग रहे थे और ओवरब्रिज से नीचे उतरा तो रास्ते के ऊपर ही सरकारी कार्यक्रम चल रहा था ।

Image by billy cedeno from Pixabay 

बड़े -बड़े सरकारी पुलिस के अधिकारी शामिल थे ।किसी नौजवान यात्री ने रुक कर देखना चाहा कि क्या चल रहा है तो कार्यक्रम में बड़े अफ़सरों के सामने किसी भी प्रकार की व्यधान ना हो इसलिए चारों तरफ़ लगाए सिपाही ने उसे डाँटते हुए आगे बढ़ने के लिए कहा । आम आदमी अभी भी लोकतंत्र के मंदिर में प्रवेश पाने के लिए अभी भी दलित ही है और वह मंदिर के आगे से ही दूर धकेल दिया जाता है ।

मेरे ज़हन में शहीदों के संजोये आज़ादी के सपने घुम रहे थे और आज आज़ादी के दिन धीरे धीरे उनकी सच्ची आज़ादी का चरित्रण ज़मीन पर धुँधला नज़र आ रहा था । आपकी नज़र में नकारात्मक हो सकता हूँ लेकिन जो हमें सिखाया गया है वो सच हो रहा है कि सच्चाई कड़वी ही होती है । मैं तुम्हें कह रहा हूँ कि सच्चाई यही है कि ....

हमने दौर ए सियासत के शोर में बार बार डूब जाना चाहा

लेकिन सियासत ने बार बार नक़ली शराब की तरह हमें निराश किया

हम आज़ादी के दिन संकल्प लेते है कि शहीदों के सपनों का भारत बनाने के लिए हम मेहनत करेंगे ।

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