हमारे देश के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जो सत्य के आग्रही, स्वच्छता प्रिय एवम् अहिंसा में मानने वाले और सादगी जीवन जीने वाले थे। उसका जीवन सूत्र था - मेरा जीवन ही मेरा संदेश है। और उसका जीवन हम सबके लिए एक आदर्श बन गया। वो सिर्फ महामानव ही नहीं बल्कि एक आदर्श विचारधारा भी थे। सत्य, अहिंसा, स्वच्छता, सर्व धर्म समभाव - ये उनके जीवन के महत्वपूर्ण पहलू थे। और ये चार बातें आज तक हमें एक अच्छे इंसान बनकर जीने की प्रेरणा देते है। हमे गांधीजी के तीन बंदरों के बारे में तो पता है, जो संदेशा देते हैं : बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो और बुरा मत बोलो । पर इसके अलावा भी गांधीजी के जीवन की बहुत सारी बातें है जो हमारे लिए एक आदर्श जीवन का रास्ता दिखा सकती है। तो आज हम बात करेंगे - महात्मा गांधी के ११ व्रतो के बारे में, इन ११ व्रतों के आधार पर ही उनका संपूर्ण जीवन रहा है। ये ११ व्रतों उनके आश्रम निवासी भी पालते थे।
महात्मा गांधी ~ मोहनदास करमचंद गांधी का जन्म २ अक्टुबर, १८६९ के दिन गुजरात के पोरबंदर शहर में हुआ था। पिता का नाम करमचंद और माता का नाम पुतली बाई था। उसने अपना प्राथमिक शिक्षण पोरबंदर में लिया था, माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक की शिक्षा राजकोट की आल्फ्रेड हाईस्कूल में ली थी। भावनगर की शामलदास कोलेज़ में वह स्नातक हुए थे। बाद में वकालत की प्रेक्टिस के लिए दक्षिण अफ्रीका गए और वहां वो २० साल तक रहे। ५ जनवरी, १९१५ को वह दक्षिण अफ्रीका से भारत आए थे , उसी दिन को " प्रवासी भारतीय दिवस " के रूप में मनाया जाता है। अपनी मातृभूमि और देशवासियों की अंग्रेज़ो द्वारा दयनीय हालत देखकर वो दुःखी हुए थे। पूरे १ साल तक भारत की विभिन्न जगहों पर जाकर उन्होंने लोगों के हालातों को जाना। साल - १९१७ से उन्होंने भारत देश को आजाद कराने के लिए सत्याग्रह शुरू किया और वहीं से शुरू हुआ उनका मोहनदास से महात्मा बनने का सफर । और १९४७ को अपना देश अंग्रेज़ो की गुलामी से संपूर्ण रूप से मुक्त हुआ। महात्मा गांधी को ' महात्मा ' का बिरुद कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने दिया था।
गांधीजी के ११ - एकादश व्रत :
गांधीजी की सादगी और संयमित जीवन के बारे में हम सब जानते है। वह अपने आत्मानुशासन का पालन ११ - एकादश व्रतों द्वारा करते थे। व्रत का अर्थ होता है - अटल निश्चय, जो हमे नियमों में तो बांधता है पर हमारा जीवन सरल और उच्च कोटि का बना देता है। उनका मानना है कि - इन ११ - एकादश व्रतों से ही हम अपने जीवन को संयमित कर सकते हैं। उसका पूरा जीवन यह एकादश व्रतों के मूल्यों पर आधारित ही रहा है । महात्मा गांधी के एकादश व्रत कुछ इस प्रकार के हैं :
अब हम इन सभी व्रतों के उद्देश्य बारे में जानेंगे। ग्यारह व्रतों में से पांच व्रत हमारे हिन्दू धर्म में भी आते है, जिसे " पंच महाव्रत " कहां जाता है।
जब भी " सत्य " की बात आती है, तो हमारे मन में उसका सिर्फ यही मतलब निकलता है - कभी जूठ नहीं बोलना चाहिए और सदैव सच बोलना चाहिए। पर गांधीजी के लिए सत्य की कुछ अलग ही व्याख्या थी - वह सत्य को ईश्वर मानते थे। जहां सत्य हो वहां ईश्वर - परमात्मा होते ही हैं। उनका मानना था कि - अगर हम सही है, तो हमे हमारे सत्य पर अड़े रहना चाहिए। हमारे सत्य पर हमे विश्वास होना चाहिए। चाहे कुछ भी हो जाए सत्य का साथ कभी नहीं छोड़ना चाहिए। सत्य का मतलब सच बोलने के साथ साथ, सच्चाई और वास्तविकता को स्वीकारना भी होता है। दूसरों की वास्तविकता के साथ हमे हमारी वास्तविकता का भी स्वीकार करना चाहिए। सत्य वास्तविकता को दर्शाता है। उसको हम टाल नहीं सकते। उसी सत्य के आधार पर ही उन्होंने देश की आजादी के लिए सत्याग्रह शुरू किया था।
अहिंसा का अर्थ सामान्य तौर पे - किसी को शारीरिक रूप से चोट न पहोंचाना या फिर मारामारी नहीं करना ऐसा होता है। किन्तु अहिंसा का अर्थ यही तक सीमित नहीं है। अहिंसा का मतलब हमे अपने वाणी व्यवहार से भी किसी को चोट नहीं पहुंचानी चाहिए, क्योंकि शरीर पर लगे घाव मिट सकते है, हृदय पे लगे नहीं। किसी को बेवजह गाली या फिर हिंसक शब्द बोलकर किसी के आत्म सम्मान को ठेस नहीं पहुंचानी चाहिए। अहिंसा का मतलब प्रत्येक जीव के प्रति दयाभाव रखना। इंसान से लेकर बेजुबान जानवरों तक, हमे उन्हें बेवजह परेशान या उसकी हिंसा नहीं करनी चाहिए। याद रखे बापू हाथ में लाठी जरूर रखते थे, पर हिंसा के लिए नहीं ; सही रास्ता दिखाने के लिए। उन्होंने अपने सभी आंदोलनों - सत्याग्रहों बिना हथियार उठाएं, बिना अपशब्द बोलकर ही जीते है। उनके मुताबिक हिंसा का जवाब हिंसा नहीं है।
अस्तेय का सामान्य अर्थ - चोरी नहीं करना होता है। पर यह सिर्फ यही तक सीमित नहीं है - किसी से गलत तरीके से छीन लेना, किसी की चीज उनसे पूछे बगैर लेना और जरूरत से ज्यादा किसी वस्तुओं को अपने पास रखना भी अस्तेय ही है । अस्तेय द्वारा गांधी बापू यही कहना चाहते है कि - जरूरत बगैर कोई चीज लेना भी अस्तेय है । अगर हम कोई चीज जो हमारे काम की नहीं है, फिर भी खरीदते है या रखते है, तो ये उनके साथ नाइंसाफी है जिसे इसकी सख्त जरूरत है । मतलब की हमने उनसे उनकी जरूरत की चीजें छीनी ऐसा होता है । बापू के मुतबिक़ हमे अपनी जरूरतों पर अंकुश रखना चाहिए । जितना चाहिए उतना ही उनका उपयोग करना चाहिए । एकबार वो नदी में नहाने के लिए गए तो, वो सिर्फ अपने साथ छोटा सा लोटा लेकर गए । उनको किसी ने कहां की इतनी बड़ी नदी है, फिर भी साथ में लोटा क्यों लिया ?? तो बापू ने कहां की - मुझे सिर्फ लोटा भर पानी ही नहाने के लिए आवश्यक है, इसके लिए सारी नदी के पानी को क्यों बिगाड़ना चाहिए ।
अपरिग्रह का अर्थ होता है - जरूरत से ज्यादा संग्रह न करना । अगर हम किसी चीज को अपनी आवश्यकता से अधिक अपने पास रखते है या उनका संग्रह करते है, तो वो भी चोरी का ही एक हिस्सा है । अगर हम जरूरत से ज्यादा किसी चीज़ को अपने पास रखते है तो कुछ समय के बाद ना तो हम उस इस्तेमाल कर सकते है या कोई ओर । हमे जितनी जरूरत है उतनी ही चीजों का संग्रह करना चाहिए । अपरिग्रह करकसर का ही एक हिस्सा है । बापू कहते है - अपरिग्रह हमे सुख और शांति की तरफ के जाता है ।
ब्रह्मचर्य का अर्थ हम सब सन्यासी के साथ जोड़ देते है, जिन्होंने शादी नहीं की या तो जिसने संसार त्याग दिया । परन्तु ब्रह्मचर्य का अर्थ बहुत ही गहरा है । उसका अर्थ है - संसारी होकर भी किसी पराए मर्द या औरत को बुरी नज़र से नहीं देखना और उसके बारे में मन में बुरे ख़्याल न रखना । हर स्त्री पुरुष को एक इंसान होने के तौर पे एक दुसरे का आदर करना चाहिए ।
शरीर श्रम का मतलब होता है - हमारे शरीर को कार्यशील रखना । श्रम यानी मजदूरी नहीं । श्रम मतलब हमे हमारे रोज़मर्रा के काम खुद करने चाहिए । हम जितना काम करेंगे उतना ही हमारा शरीर स्वस्थ रहेगा । खुद काम करने से हमारे शरीर को भी कसरत मिलती है । बापू कहते थे कि - जो शरीर श्रम नहीं करता, उसे भोजन का भी अधिकार नहीं है । श्रम करने से हमारा शरीर मजबूत बनाता है । शारीरिक श्रम न करने से हमारे शरीर में अनेक रोग लागू हो सकते है । अगर काम / श्रम नहीं करोगे तो भूख भी नहीं लगती । शरीर को ज्यादा आराम देने से अनेक रोग होते है , जैसे कोई बंध पुराना स्कूटर बिना चलाए बिगड़ जाता है उसी तरह । बापू के आश्रम में भी सभी लोग अपने काम खुद करते थे, खुद बापू भी ।
सदियों से चली आ रही ये छूत - अछूत की परंपरा के निवारण के लिए उन्होने अपने आश्रम में एक अछूत परिवार को रखा था, जिससे यह भेदभाव मिट सके । इन ग्यारह व्रतों में से सबसे कठिन व्रत यही था, क्योंकि यह परंपरा सदियों से हमारे समाज और लोगो के मन में ऐसे बैठ गई थी कि उनका हल निकालना मुश्किल हो गया था । बापू यह छूत - अछूत की परंपरा के सख्त खिलाफ थे । उनके लिए सभी जाति, वर्ण और धर्म के लोग एक समान थे । हरेक जाति, धर्म या वर्ग के लोगों को समान अधिकार, हक और इज्जत मिलनी चाहिए । सबको समान नजरिए से देखना चाहिए । हमारी आंखे सभी जाति के लोगों के लिए एक समान ही होनी चाहिए । व्यक्ति कोई भी जाति या वर्ग का हो, पर आखिर में वो भगवान का बनाया हुआ इंसान ही तो है ।
अभय का मतलब जो भय से मुक्त हो या जिसे भय न हो । सत्य हमे वास्तविकता दिखाकर भय मुक्त करता है, और अभय बनाता है । सत्य पर अडिग रहना ही निडरता की निशानी है । हमे गलत के खिलाफ बड़ी निडरता से आवाज उठानी चाहिए । सत्य हमे बहादुर बनाता है । सत्य का साथ देना, उनकी राह पर चलना ही अभयता की निशानी है ।
स्वदेशी मतलब ऐसी वस्तुएं और सामान जो हमारे देश में ही बनी हुई हो । गांधीजी स्वदेशी वस्तुओं का इस्तेमाल करने का आग्रह करते थे । उनके मुताबिक - हमे अपने देश में बनी हुई या उत्पादित हुई वस्तुएं ही खरीदनी चाहिए जिससे उत्पादक को फायदा हो और हमारे देश की प्रगति में भी उनका हिस्सा जाए । वो आये तो थे सूट बुट में, पर देश की हालत देखकर उन्होंने स्वदेशी वस्त्र (धोती) अपनाएं । स्वदेशी को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने चरखा चलाने का सिद्धांत सबके सामने प्रकट किया । और इसी से खादी ग्रामोद्योग शुरू हुआ । जिससे लोगो को रोजगार भी मिला और लोगो को वस्त्र भी स्वदेशी कापड़ के उच्च गुणवत्ता के मिले । उन्होंने सबको खादी से बने हुए वस्त्रों पहनने का आग्रह किया । विदेशी चीजों से हमारा पैसा विदेश जाता है । अगर हम स्वदेशी चीजें ले तो हमारा पैसा हमारे देश में ही रहेगा और उनके विकास के काम में ही इस्तेमाल होगा ।
अस्वाद का मतलब है - बिना स्वाद का । वैसे तो हम रोज ही अपना मनपसंद भोजन करते है, जो अपनी जीभ को पसंद हो। पर गांधीजी कहते थे कि - कभी कभी हमे नापसंद भोजन यानी की कड़वा भोजन भी लेना चाहिए, जो हमारे स्वास्थ्य के लिए अच्छा हो । भोजन हमें स्वाद के नजरिए से नहीं परन्तु हमारे शरीर के स्वास्थ्य के लिए कैसा है उस नजरिए से लेना चाहिए। हमारी जीभ को सभी स्वाद के भोजन की आदत डालनी चाहिए। हम सिर्फ पालख और मेथी की सब्जी खाते है। पर गांधीजी खुद नीम के पत्तों की भाजी (सब्जी) बनाकर खाते थे। अधिक नमकीन, तीखा, खट्टा, मीठा भोजन हमारे शरीर को नुकसान पहुंचाता है। स्वाद के मामले भी हमें संयम रखना चाहिए। कभी कभी हमे स्वास्थ्य के नजरिए से अच्छा हो, वो भोजन भी कर लेना चाहिए।
सत्य और अहिंसा के बाद बापू सबसे अधिक महत्व " सर्व धर्म समभाव " को देते थे। जैसे वसुधैव कुटुंबकम् की भावना है, उसीकी राह पर चलकर वो सर्व धर्म समभाव की भावना को महत्व देते हैं। उनके मुताबिक - हमे सभी धर्मो के प्रति समान भाव रखना चाहिए। सभी धर्मो को समान दृष्टि से देखना चाहिए । सभी धर्मो का आदर करना चाहिए। धर्म कोई भी ही परमात्मा एक ही है। धर्म के नाम पर कभी कोई गलत काम या झगड़ा नहीं करना चाहिए। भगवान हमें मिलजुलकर रहने का ही संदेश देते है। सभी धर्मो के लोगो को इंसानियत के नाते मिलजुलकर रहना चाहिए, एक दुसरे के प्रति भाईचारा कायम रखना चाहिए।
तो यह बात थी - हमारे बापू : महात्मा गांधी जी के ११ आदर्श व्रतों की। इनमें से अगर एक का भी हम पालन करे तो हमारा जीवन एक आदर्श और सफल जीवन बन सकता है। ये व्रत हमे संयमित जीवन के साथ साथ इंसानियत भी सिखाता है।