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हकीकत से हुई जब रू-ब-रु ज़िंदगी,
कर बैठी एक आरज़ू आरज़ू-ए-ज़िंदगी||
हकीकत ने आरज़ू-ए-ज़िंदगी से पूछा,
बता क्या है तेरी जुस्तुजू ऐ ज़िंदगी?
"मेरी ज़िंदगी की हर आरज़ू मुक़म्मल हो",
हँस कर बोली आरज़ू-ए-ज़िंदगी||
हकीकत के लिए ये काम था मुश्किल!
हकीकत के हाथ में थी अब आबरू-ए-ज़िंदगी||
हकीकत बोली हर ख्वाब मुक़म्मल नहीं होता!
ख़त्म कर दे ये आरज़ू ऐ ज़िंदगी||
मिल जाए तो आरज़ू हकीकत बन जाती है;
आरज़ू आरज़ू नहीं रहती आरज़ू-ए-ज़िंदगी||
आरज़ू-ए-ज़िंदगी ने समझ ली हकीकत की बातें;
ख़त्म हुई ये आरज़ू और ये गुफ्तगु-ए-ज़िंदगी ||