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सर-ए-राह चलते चलते
एक खत मिला था पड़ा हुआ
वो कागज़ का एक टुकड़ा
जज़्बातो से था भरा हुआ
गम-ए-जीसत का हर दर्द
उस ख़त में था बया हुआ
दास्तान-ए-हयात का हर रमज़
उस ख़त में था अया हुआ
कैसे आगाज़ हुआ इस सिलसिले का
और कैसे खतम सिलसिला-ए-वफा हुआ
दास्तान-ए-हयात का हर बाब
उस ख़त में था खुला हुआ
मुझे अपने ज़ब्त पे नाज़ था
मेरे सबर को नाजाने क्या हुआ
मेरी आंखें कैसे छलक गई
मुझे मलाल है ये बुरा हुआ
नाजाने किसका ख़त था वो
जो कोने में था पड़ा हुआ
कहीं खून-ए-दिल से लिखा हुआ
कहीं आंसुओ से मिटा हुआ

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