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रक्ताभ क्षितिज पर उदित हुआ अरूण दिवाकर,
खुश हो रहा,एक टुकड़ा धूप फैलाकर।
निकल‌ पडा‌ धूप‌ प्रकृति के ‌सैर पर,
नृत्य करता फिर रहा इधर उधर।
कभी परिंदे के मानिंद,वृक्ष पर ‌फुदकता,
कभी भवन‌ की छत पर घूम घूम ‌इठलाता।
शैशव प्रकृति का अनोखा,
हर रुप में भाता, शोभा पाता।
पर जब घूप‌ है तपती,
हर प्राणी तपन से व्याकुल हो जाता।
पर जाडे मे‌ यही घूप वरदान बन जाता
हर प्राणी इससे आरोग्य पाता।
अर्थ की अंधी ‌दौड में,भाग रहा मानव,
गांव छोड़ महानगर को,
बंद से घर‌‌ में तरसता,एक टुकड़ा धूप को।
घूप है ‌प्रकृति की अनमोल धरोहर,
यह‌ लेता मनुष्य का हर कष्ट हर।
गर सूर्य हमें न‌ दे अपनी ऊष्मा,
कैसे कर पाएंगे हम, जीवन संरचना।
कृषि, पशु पालन हर उघोग ‌है‌ इसपर निर्भर
हम प्राणी मात्र है इसपर निर्भर।

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