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इम्तेहां लेती ज़िंदगी या ज़िंदगी इक इम्तेहान है
दिल की आरज़ू मे छिपा,इक ख्वाहिशों का मकान है
मकान मे है सपने,और उनकी कुछ कहानियाँ
कुछ माज़ी की यादें,और यादों की रवानियां
जिसकी खिड़की से मैं,खुद मे अंदर झांकता हूँ
असलियत-ए-ज़िंदगी और ख्वाहिशों को ताकता हूँ
दरवाजे जिसके सख्त है,मानो बने हो शीशम के
रंग पीला सा है जिसका,उम्मीद देती किरणों से
वही इक मेज़ पे,कुछ ख्वाब अधूरे रखें है
सरकारी दफ्तर की हो फाइल जैसे,ऊपर नीचे जो दबी हैं
कुछ ख्वाब है बीते वक़्त की,कुछ ख्वाहिशें है भावी पल की
वक़्त को इक रोज़ पकड़ने की,और दूर फलक तक जाने की
ईठ जिसकी है उम्मीद,इक रोज़ मुक्कमल करते है
टूटी सी छत है जिसकी,हौसला बुलंद रखते हैं।
वहाँ पे रखा इक आइना है,
जो हर बार इक नया चेहरा दिखलाता है
कभी मुकम्मल ख्वाहिश हुए दिखाता है
कभी असलियत पर ला पटकता हैं
इक रोज़ जो पूछा मैंने क्यों तू ऐसा करता है
कहता मैं आइना हूँ तेरे आबरू का,
नाकामी क्यों तुझको खटकता है
अब वो मकान घर सा है मुझमें
इम्तेहां देकर उनमे कभी सो जाता हूँ
हर ख्वाहिश को मुकम्मल करने को निरंतर प्रयास करता हूँ
पर कितने है जो ज़िंदगी के इम्तेहान मे ही फंसे रह जाते है
कभी उलझ से जाते है,कभी नाकाम हो जाते है
पर ख्वाहिशों का घर अमर ज़िंदा रहता है
जिंदगी बढ़ती रहती है,मकान ढह सा जाता है
दिल की आबरू मे छिपा तब रहता सिर्फ टूटा मकान है
इतने क्यों इम्तेहान लेती ज़िंदगी या क्या पूरी ज़िंदगी ही इक इम्तेहान है।

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