काएनात ने जो भी ख़ूबसूरत और क़ीमती तोहफ़े हमें दिए हैं,उसी में से एक तोहफ़ा हैं औरत। खुदा ने औरत को मर्द के बाएँ पसली से पैदा किया हैं। क्यूँ ? इसलिए,के,औरत मर्द के साथ और बराबर में रहे,ना की मर्द के क़दमों पड़ी रहे पैरों की जूती बनके या उसके माथे पर चढ़ जाए ताज बनके। अग़र हम तारीख़ में ज़्यादा अंदर तक झाँकने की कोशिश करे तो,हम ये समझ सकते हैं के पुराने दौर में औरत का कुछ अलग ही मर्तबा था। चाहे वो कोई भी मज़हब हो। अगर हम सनातन हिन्दू मज़हब की बात करे तो कितने ही ऐसी औरतों के नाम मिल जाएंगे जिन्हे उस वक़्त में विदुषी की उपाधि मिली थी। वैदिक काल में औरतों को भी उतने ही हक़ दिए गए थे जितने की मर्दों को। उस काल में अभृणी,लोपामुद्रा,गार्गी और रोमासा ये वो औरतें हैं जिन्होंने वैदिक अध्ययन का रास्ता चुना था,और उन्हें ब्रह्मवादिनी कहाँ जाता था। उत्तर वैदिक काल में अध्यात्म और अध्ययन में औरतों की हिस्सेदारी कम हो गई,क्यूँकी,समाज में अनुष्ठान और कर्मकांड बढ़ने लगे,जिसमे औरतों का हिस्सा लेना सही नहीं माना जाता। धर्मशास्त्र और मनुस्मृति,इन दोनों शास्त्रों ने औरतों की ज़िन्दगी और भी बदतर बना दी। सबसे ज़रूरी बात ये के,लड़कियों की अध्ययन पर रोक लगा दिया गया।
अब अगर हम बात करे इस्लाम में पुराने दौर में औरतों का क्या मक़ाम था तो इस से पहले ये देखना भी बहोत ज़रूरी हैं के,इस्लाम को दुनियाँ में आए हुए १४०० साल हुए हैं। उस से पहले की बात करे तो मध्य पूर्व एशिआ में औरतों का कोई मक़ाम नहीं था,मुआशरे में। जानवरों से बदतरीन सुलूक़ उनके साथ किया जाता। इस्लाम जब दुनियाँ में फ़ैलने लगा तो,औरतों को भी इंसानोंवाला दर्जा मिला। उन्हें पढ़ने का हक़,अपना जीवनसाथी चुनने का हक़, माँ-बाप के जायदाद में बँटवारे का हक़ मिला। इस्लाम के शुरआती वक़्त में,हज़रत ख़दीजा,हज़रत आएशा,हज़रत फातिमा,और हज़रत ज़ैनब साथ ही और भी कुछ नाम हैं जिन में से कुछ ने कर्बला की लड़ाई में बराबरी से मर्दों का साथ दिया था,बापर्दा रहते हुएँ भी। ज़रा पीछे आए तो रज़िया सुलतान, नूरजहॉँ वो औरतें हैं जिन्होंने अपनी ताकत,हिम्मत और अक्ल से हिंदुस्तान पर राज किया।
ये सब यहाँ समझाने या बताने का मतलब सिर्फ ये हैं की,डिअर लेडीज़,समाज में हम पहले किस जगह पर थे और आज हम कहाँ हैं? ज़रा सोचिए। क्या हमने विदेशी तहज़ीब के नशे में आकर खुद को नेस्तोनाबूत नहीं कर दिया? मैं किसी के कपड़ों पर टिपण्णी नहीं करुँगी। क्यूँकी यहाँ कुछ लोग ये कहते हुए मिलेंगे "माय बॉडी,माय रूल्स", वही तो मैं भी कहना चाहती हूँ। जब बॉडी आप की है तो रूल्स भी आप के होने चाहिए,क्यों कोई और आप के बॉडी पर अपना रूल चलाए। जब मीठी चीज़ों पर मक्खियाँ भिनभिनाती है तब हम मीठी चीज़ों को ढँकते हैं,ना की मक्खियॉं मारने बैठ जाते हैं। मुक़द्दस और पाक किताबों को परदे में रखा जाता है। चाहे फिर वो किताब,क़ुरान पाक हो या गीता हो। शायद मेरी ये बातें किसी को बुरी भी लगेगी लेकिन हमें इन पर सोचने की ज़रूरत हैं। किसी की घटिया मानसिकता को हम कंट्रोल नहीं कर सकते लेकिन अपने आप को तो सुरक्षित रख सकते हैं,ऐसे घटिया लोगों से। मैं ये भी नहीं कहूँगी हमने अपने विचारों को दबाना हैं। हम औरतें इंसान हैं और हमने इंसानों की ही तरह रहना हैं। लेकिन हर एक चीज़ की कोई न कोई मर्यादा होती है। कहते हुए दुःख होता हैं के आज हम फेमिनिज़म के नाम पर मर्यादाओं के परे जा रहे हैं। ऊपर में जिन औरतों के नाम लिखे गए,वो यूँ ही नहीं लिखे हैं। हर एक औरत की अपनी-अपनी मज़बूत कहानी हैं। आज हमारी क्या कहानी लिखी जा रही हैं? निर्भया के साथ दरिंदगी हुई,आसिफ़ा नाम के मासूम बच्ची का बलात्कार हुआ,बिलकिस के पेट से भ्रूण निकालकर त्रिशूल पर चढ़ाया गया,लिव-इन में रहे रही श्रद्धा के पैंतीस टुकड़े हुए। ये हैं आज की हमारी कहानियाँ। शर्म आनी चाहिए हमें, शर्म आनी चाहिए इस समाज को और शर्म आनी चाहिए उन दरिंदों को।
आज हम खुद को एक पढ़ीलिखी,ज़िम्मेदार महिला कहते है तो फिर हम अपनी ज़िम्मेदारी क्युँ भूल जाते हैं। क्यूँ हम उन लोगों के हाथो बेवकूफ बनके बर्बाद होते हैं। क्या हमें औरत की ज़िन्दगी इसलिए मिली है के कोई मर्द हमें निर्भया या श्रद्धा बनाके चलता बने? क्या हमारी जान इतनी सस्ती है के हम किसी के फ्रिज में या किसी के सूटकेस में टुकड़े बनके पड़े रहे। ज़रा खुद सोचिए के हम इस वक़्त कहाँ हैं? फेमिनिज़म के नाम पर हम खुद को बेहया बना रहे हैं। अपने पहनावे पर हमें कोई तकलीफ नहीं। जितना ज़्यादा दिख सकता है उतना ज़्यादा दिखाने की कोशीश रहती है। फ़ैशन के नाम पर हम ज़रूरी कपड़ों में भी कमी करते जा रहे हैं।
नुक्लियर फॅमिली है,माँ-बाप नौकरी करते है,बच्चे अपने आप वक़्त से पहले ही इंटरनेट के सहारे बड़े हो रहे हैं। छह महीने के बच्चे को भी अगर बेबी फ़ूड खिलाना हो तो माँ उसके सामने मोबाईल रख देती है के। बच्चे परेशां करे तो उनके हाथ में मोबाइल पकड़ा दिया जाता हैं। पर्सनल प्राइवेसी के नाम पर सब अपने अपने कमरों में बंद रहते हैं। एक घर में सिर्फ दो या चार लोग है लेकिन आपस में बहोत काम बातचीत हैं। बच्चो को माँ-बाप की रोकटोक बुरी लगती हैं। जब हम नई पीढी को बचपन ही ऐसा दे रहे है तो आगे उनके साथ सब अच्छा होगा इसकी उम्मीद कैसे कर सकते है? मेरी बातें कड़वी लग रही होगी कुछ सो कॉल्ड फेमिनाइन को। लेकिन ये सोचने का वक़्त है,किसी की बातों को बुरा मानने का नहीं।
एक बात ये भी है सामने आयी हैं की राष्ट्रीय स्तर पर जब भी कोई अनहोनी होती,जैसे के सामाजिक दंगे,युद्ध इन सब में भी औरतों पर अत्याचार होना आम बात हो गई हैं। २००२ के गुजरात दंगो कि बिलकिस और उस जैसी कितनी ही औरतें, २०१६-१७ में हुई रोहिंग्या हत्याओं में औरतों पर अत्याचार, १९९१ में कश्मीर के कुनान और पोशपोरा इलाके में १०० से लेकर ३०० महिलाओं पर रेप,ये सब उदाहरण सामने हैं। इस से भी बड़ी बात ये हैं के जब किसी महिला पर अत्याचार होता है तब वो इज़्ज़त और शर्म के लिहाज़ से पुलिस में कोई शिकायत दर्ज नहीं करती। अगर शिकायत की भी जाए तो गुनहगार ज़मानत पर छूट जाता हैं। केस का फ़ैसला कोर्ट से आते-आते ज़माना बीत जाता हैं। कई बार इस बिच शिकायत कर्ता महिला के साथ और कोई बड़ी अनहोनी हो जाती हैं। मुझे ये समझ नहीं आता के जब किसी औरत के साथ गलत होता हैं तब गुनाह तो मर्द ने किया फिर इज़्ज़त औरत की कैसे जाती हैं ? समाज ये कैसे कहता के औरत की इज़्ज़त लूट गई? क्या मर्द की कोई इज़्ज़त नहीं होती। इतना बड़ा गुनाह कर के भी वो इज़्ज़तदार? और ना चाहते हुए भी किसी के गलत इरादों की शिकार बनी एक औरत बेइज़्ज़त?
किस मुआशरे में? किस समाज में रहे रहे हैं हम। सरकार की बात करे तो कोर्ट ऐसे जजमेंट दे रहा है जिस से के हमारी नई पीढ़ी को हद से ज़्यादा आज़ादी मिल रही हैं। लिव-इन रिलेशनशिप गलत नहीं हैं, विवाह बाह्य संबंध गलत नहीं है,गलत अगर है तो सिर्फ औरत जो प्यार मोहब्बत के नाम पर बेवकूफ बन जाती है। कब तक ऐसे बेवकूफ बनाया जाएगा हमें। क्या हमें समाज में वो दर्जा दोबारा मिलेगा जिसके हम हक़दार हैं।
१३ अगस्त २००४,नागपुर के अक्कू यादव केस से हमें कुछ सिखने की ज़रूरत है। अक्कू यादव ने स्लम में रहनेवाली करीब-करीब २०० औरतों के साथ गलत काम किया था। १३ अगस्त २००४ को,उसी स्लम एरिआ में रहनेवाली सभी औरतों ने कोर्ट रूम में,पुलिस के सामने अक्कू यादव को पिट-पिट कर मार डाला था। उसके बाद नागपुर में कोई दूसरा अक्कू यादव पैदा नहीं हुआ आज तक। ये हैं असली नारी शक्ति। बदन उघाड़े घूमना नारी शक्ति नहीं है,माय बॉडी माय रूल के नाम पे जो चाहे अपनाना नारी शक्ति नहीं हैं,प्यार मोहब्बत के नाम पर किसी के थप्पड़,पिटाई खाना नारी शक्ति नहीं हैं। डिअर लेडीज अपनी असली शक्ति को पहचानो,के हम क्या थे और कहाँ हैं अब। हमें अपनी सुरक्षा खुद करनी हैं। किसी पर भी निर्भर नहीं रहना है। हमें अपनी मर्यादा खुद सेट करनी है क्युँकी अब कोई कृष्ण नहीं आएगा किसी द्रौपदी को वस्र हरण के वक़्त कौरवों से बचाने के लिए।