न्यायिक सक्रियता कार्यपालिका एवं विधायिका की निष्क्रियता के परिणामस्वरूप विकसित अवधारणा है जो लोकतंत्र के तीसरे स्तंभ की सजगता की सूचक है । जनहित याचिकाओं के रूप में न्यायमूर्ति पी.एन.भगवती ने न्यायिक सक्रियता के नए अवतार की शुरुआत की।भारत में न्यायिक सक्रियता की नींव न्यायमूर्ति वी.आर कृष्ण अय्यर, न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती, न्यायमूर्ति ओ.चिन्नप्पा रेड्डी और न्यायमूर्ति डी.ए. देसाई ने रखी थी।संविधान के अनुच्छेद 13 में प्रदत्त न्यायिक पुनरावलोकन के संवैधानिक अधिकार ने अनुच्छेद 32 एवं 226 में जारी रिटों के माध्यम से न्यायिक सक्रियता का रूप ग्रहण किया है। विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया से विधि की उचित प्रक्रिया के दर्शन न्यायिक सक्रियता में होते हैं। न्यायिक सक्रियता के माध्यम से ही देश में बड़े-बड़े घोटाले,पर्यावरण - मुद्दे एवं आम लोगों से जुड़े मुद्दों का खुलासा हुआ है । न्यायिक सक्रियता एक अवधारणा है जिसकी उत्पत्ति 1947 में अमेरिका में हुई थी।ऑर्थर स्लेसिंगर जूनियर ने जनवरी 1947 में फॉर्च्यून पत्रिका में प्रकाशित 'द सुप्रीम कोर्ट: 1947' शीर्षक लेख में पहली बार "ज्यूडिशियल एक्टिविज्म" शब्द का प्रयोग किया था।नागरिकों के अधिकारों को कायम रखने और देश की संवैधानिक और कानूनी व्यवस्था को संरक्षित करने में न्यायपालिका की सक्रिय भूमिका को न्यायिक सक्रियता के रूप में जाना जाता है।ब्लैक लॉ डिक्शनरी न्यायिक सक्रियता को "न्यायिक दर्शन” के रूप में परिभाषित करती है। भारत में न्यायिक सक्रियता के तरीके भारत में न्यायिक सक्रियता के विभिन्न तरीके अपनाए जाते हैं। वे निम्नलिखित हैं:
न्यायिक सक्रियता ने साधनहीन,भाग्यवादी जनता तथा आम नागरिकों की लोकतंत्र में आस्था एवं विश्वास जगाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है।कार्यपालिका की संवेदनहीनता तथा निरंकुशता को नियंत्रित करने में न्यायिक सक्रियता ने प्रभावी योगदान दिया है ।इसने भारतीय न्याय प्रणाली को जटिल तथा पुरातन विधिक नियमों से मुक्त करने का भी प्रयास किया है ।न्यायिक सक्रियता ने लोकजीवन में पारदर्शिता पर बल दिया है ।भारतीय न्यायपालिका को भारतीय संविधान का संरक्षक माना गया है। जब न्याय प्राप्ति के अन्य सभी दरवाजे बंद हो जाते हैं तो नागरिकों के पास अपने अधिकारों की रक्षा के लिए आखिरी उम्मीद के रूप में न्यायपालिका होती है। अनुच्छेद 21 और न्यायिक सक्रियता.
अनुच्छेद 21 में कहा गया है -
‘किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा, अन्यथा नहीं।’
उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय भी दिया कि अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत जीवन के अधिकार में आजीविका का अधिकार भी शामिल है। कपिला हिंगोरानी बनाम भारत संघ मामले में भोजन के अधिकार को जीवन के अधिकार के अंग के रूप में चिह्नित किया गया जहाँ स्पष्ट रूप से कहा गया कि यह राज्य का कर्त्तव्य है कि उन परिस्थितियों में आजीविका के पर्याप्त साधन उपलब्ध कराए जहाँ लोग भोजन का खर्च उठाने में असमर्थ हैं।भारत के उच्चतम न्यायालय द्वारा न्यायिक सक्रियता के एक और वृहत दौर का आरंभ तब हुआ जब इसने अनुच्छेद 21 में शामिल 'जीवन' शब्द की व्याख्या केवल जीवित रहने या जैविक अस्तित्व तक सीमित रूप से करने की बजाय गरिमापूर्ण मानव जीवन के रूप में की।
इस मामले में भारतीय उच्चतम न्यायालय ने इस तर्क को खारिज कर दिया कि किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से वंचित करने के लिये न केवल विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिये बल्कि यह प्रक्रिया निष्पक्ष, तार्किक और न्यायसंगत भी होनी चाहिये। किसी अन्य दृष्टिकोण को अपनाने पर अनुच्छेद 21 में सम्यक प्रक्रिया को शामिल करना होगा जिसे संविधान के निर्माण के समय इसमें शामिल नहीं किया गया था।
इस मामले में सवाल यह था कि क्या संविधान संशोधन कानून है; और क्या मौलिक अधिकारों में संशोधन किया जा सकता है या नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने तर्क दिया कि मौलिक अधिकार संसदीय प्रतिबंध के अधीन नहीं हैं जैसा कि संविधान के अनुच्छेद 13 में कहा गया है और मौलिक अधिकारों में संशोधन के लिए एक नई संविधान सभा की आवश्यकता होगी। साथ ही कहा गया है कि अनुच्छेद 368 संविधान में संशोधन करने की प्रक्रिया तो देता है लेकिन संसद को संविधान में संशोधन करने की शक्ति नहीं देता है।
इस फैसले ने संविधान की मूल संरचना को परिभाषित किया। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि हालांकि मौलिक अधिकारों सहित संविधान का कोई भी हिस्सा संसद की संशोधन शक्ति से परे नहीं है, "संविधान की मूल संरचना को संवैधानिक संशोधन द्वारा भी निरस्त नहीं किया जा सकता है।" भारतीय कानून में यह वह आधार है जिसमें न्यायपालिका संसद द्वारा पारित किसी संशोधन को रद्द कर सकती है जो संविधान की मूल संरचना के विपरीत है।
इस मामले में न्यायिक व्याख्या द्वारा अनुच्छेद 21 में सम्यक प्रक्रिया की इस आवश्यकता को शामिल कर लिया गया। इस प्रकार, सम्यक प्रक्रिया का उपखंड, जिसे संविधान निर्माताओं द्वारा सतर्कतापूर्वक और जान-बूझकर छोड़ दिया गया था, उसे भारतीय उच्चतम न्यायालय की न्यायिक सक्रियता के माध्यम में शामिल कर दिया गया। एस.आर.
इस मामले में न्यायाधीशों ने कहा कि कुछ स्थितियाँ ऐसी होती हैं जहाँ राजनीतिक तत्त्व अभिभावी होते है और वहाँ न्यायिक समीक्षा संभव नहीं होती।
इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने इस मुद्दे पर किसी विशिष्ट कानून के अभाव में कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की रोकथाम के लिए दिशानिर्देश जारी किए।
इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने किसी के लिंग की स्वयं-पहचान करने के अधिकार को मान्यता दी और माना कि ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को अपने निर्धारित लिंग के बजाय अपने स्वयं-पहचान वाले लिंग के रूप में व्यवहार करने का अधिकार है।
2016 में इसी मामले की सुनवाई करते हुए, SC ने एक अंतरिम आदेश पारित किया था जिसमें सभी भारतीय सिनेमाघरों को फिल्म शुरू होने से पहले राष्ट्रगान बजाना अनिवार्य था और हॉल में मौजूद सभी लोगों को खड़ा होना अनिवार्य था।यह तर्क दिया गया कि यह निर्देश राष्ट्रीय सम्मान अपमान निवारण अधिनियम 1971 से आगे जाता है,जो कहता है कि किसी भी फिल्म, नाटक या किसी भी प्रकार के शो में राष्ट्रगान को शामिल नहीं किया जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने 2017 में सड़क सुरक्षा के बारे में फैसला सुनाते हुए होटल, रेस्तरां और बार में शराब की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया था , जो 500 मीटर के भीतर हैं। यह तर्क दिया गया कि यह एक प्रशासनिक मामला था जहां निर्णय राज्य सरकारों के पास था।
न्यायिक सक्रियता उन मामलों पर निर्णय देकर सामाजिक परिवर्तन लाने में मदद कर सकती है जो महत्वपूर्ण सामाजिक मुद्दों को संबोधित करते हैं और कानूनी मिसाल कायम करते हैं जो भविष्य के कानूनों और नीतियों की दिशा को आकार देते हैं। निष्कर्ष भारत में न्यायिक सक्रियता एक गतिशील शक्ति का प्रतिनिधित्व करती है, जो सक्रिय न्यायिक हस्तक्षेपों के माध्यम से सामाजिक प्रगति और व्यक्तिगत अधिकारों को उत्प्रेरित करती है। अधिकारों का विस्तार करने, कार्यकारी जवाबदेही सुनिश्चित करने और अधिक समावेशी लोकतंत्र को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए यह एक जटिल परिदृश्य को नेविगेट करता है।
सशक्तिकरण, लोकतांत्रिक मूल्यों और संस्थागत गतिशीलता के बीच नाजुक संतुलन भारत के कानूनी परिदृश्य को आकार देने में न्यायपालिका की उभरती भूमिका को रेखांकित करता है।मामलों पर निर्णय लेते समय न्यायाधीशों को यह सुनिश्चित करना चाहिये कि विधि की व्याख्या और उसका प्रवर्तन समकालीन परिस्थितियों व मूल्यों में हो रहे परिवर्तनों के आधार पर किया जाए। चूँकि समाज में परिवर्तन होता रहता है और उसकी मान्यताएँ व मूल्य भी बदलते रहते हैं, न्यायालयों के निर्णयों में उनका प्रतिबिंबन होना चाहिये।न्यायिक सक्रियता अच्छी हो सकती है यदि न्यायालय का इरादा नागरिकों के अधिकारों की रक्षा और संरक्षण करना है, न कि केवल सरकार की आलोचना करना।