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छत्तीगढ़गढ़ के रामनामी समाज ने राम को अपने मन में ही नहीं तन पर भी बसा लिया है  एक बहुत अच्छी पंक्ति है, ‘सब अपना राम पराया’ इसका अर्थ है कि हमें जीवन में सभी चीजें प्रिय है परन्तु राम का नाम लेने का समय नहीं है। जब समय हमारी इच्छाओं के विरुद्ध गतिमान होता है, तब वो हमारे लिए बुरा समय बन जाता है। फ़िर हमें राम याद आता है पर छत्तीसगढ़ की परिस्थिति देखकर मन को शांति मिलती है कि कैसे कुछ वर्ग के लिए राम की पूजा निषेध होने पर उन्होंने अपने तरीके से राम को अपना बना लिया । 1890 दशक में परशुराम द्वारा स्थापित हिन्दू साम्राज्य आज रामनामी समाज कहलाता है । किस तरह जातिगत भेदभाव के विरोध में पूर्ण समुदाय ने अपने शरीर पर टैटू गुंदवाया और रामचरित्रमानस को पढ़ने के लिए उन्होंने खुद को शिक्षित करते हुए संगीत और कपड़ो की परंपरा को भी विकसित किया । यह समुदाय पंद्रहवी शताब्दी के सतनामी और भक्ति आंदोलन से प्रभावित है। तभी चार जिलों के दर्जनों गॉंव को मिलाकर इनके सदस्य दो लाख तक हो गए थें ।

यह समुदाय निर्गुण राम के अनुयायी है। इनके राम को कौन नहीं जानता । अगर हम यहाँ भक्ति आंदोलन के बारे में बात करे तो 1400 से 1700ई. में भक्ति आंदोलन अपने चरम पर था। आदिकाल बीतने के बाद कबीर, गुरुनानक, रैदास, नामदेव, सूरदास, तुलसी और दादू दयाल आदि कितने संत-महात्मा हुए है, जो राम से जुड़े हुए थें। तुलसी के राम अयोध्या के राम है। सूरदास कृष्ण की भक्ति करके अमर हो गए । मगर निर्गुण काव्यधारा के प्रमुख कबीर ने निर्गुण राम से जन आंदोलन चलाया । कबीर खुद निन्म जाति में पैदा हुए थें, उन्हें भी समाज में फैले जातिगत भेदभाव की श्रेणी में रखा गया तो उन्होंने ने भी उसी राम के बारे में बताया जो सर्वत्र है। निर्गुण का अर्थ है, जिसमे कोई व्यक्ति-विशेष गुण नहीं है अर्थात वह जन्म और मृत्यु के चक्र से अछूता है । वह कोई अवतारी पुरुष नहीं है।

छत्तीसगढ़ के रामनामी समुदाय का राम से जुड़ने का जो तरीका है, वह भी बड़ा अनुपम है। अपने पूरे शरीर को टैटू से ढकना, जिसे स्थानीय अर्थ में गोदना भी कहते हैं, कहीं न कहीं यह तुलसी के रामचरित्रमानस के परिवेश को भी परिभाषित करता है । इस समुदाय का मुख्य उद्देश्य है, निश्छल भाव से राम की आराधना करना बिना किसी राजनैतिक हस्तक्षेप के । और देखा जाए तो सही मायनो में सच्ची भक्ति यहीं है ।

राम को सतनाम से अगर कोई जोड़ रहा है तो वह गलत नहीं है क्योंकि सतनाम का अर्थ है जो नाम सत्य है। राम का नाम सत्य है। कबीरपंथी समुदाय के लोगों का यह मनाना सही है और अगर छत्तीसगढ़ का रामनामी समुदाय भी इस बात को मानता है तो वह सत्य का अनुसरण कर रहा है। इसकी शुरुवात तब से मानी जाती है : जब परशुराम को एक महात्मा ने कुष्ठ रोग से मुक्ति प्राप्त करने के लिए रामायण पढ़ने के लिए कहा और राम नाम के प्रभाव से उनका रोग ठीक होता गया और केवल राम नाम उनके शरीर पर रह गया । लोग इसे चमत्कार के रूप में देखते हुए उन्हें एक दिव्य व्यक्ति समझने लगे । लोगों ने उनके घर को पवित्र स्थल बना दिया और दर्शन हेतु आने लगे । राम नाम की महिमा को देखते हुए कुछ लोगों ने भी अपने ललाट पर राम नाम गुदवा दिया । परशुराम भरद्वाज स्वंय बटाईदार जाति में जन्मे थें । ये छत्तीसगढ़ के जांजगीर जिले के चांपा गॉंव में रहते थें। अपने पिता के साथ रहते हुए इन्होने पढ़ना-लिखना सीखा ताकि रामायण का अध्ययन कर सकें। इनकी शादी 12 वर्ष की आयु में हो गई थीं ।

परशुराम ने राम नाम से अपने अनुयायियों को आध्यात्मिक रास्ता अपनाने के लिए कहा । जिन लोगो ने इसे राजनैतिक अवसर समझा, वह इस संप्रदाय से अलग हो गए । बहुत सरल सी बात है, जब आप किसी व्यक्ति-विशेष से जुड़ोगे तो आपको उनके दर्शन के लिए किसी भवन में जाना पड़ेगा पर जब आप 'नाम' से जुड़ोगे तो आपकी आध्यात्मिक उन्नति होगी । कबीर, रैदास, नामदेव, रंका बंका, दादूदयाल, भिखारीदस, तुकाराम, ये सभी उस राम नाम से जुड़े और इन्होने संसार रूपी भवसागर को पार कर लिया । कहते तो यहाँ तक है कि कबीर और नामदेव जी शरीर समेत प्रभु से अगोचर होते थें । इतनी प्रगांढ़ भक्ति क्या कोई स्थल के आश्रय की गई होगी ? 'नहीं' केवल ‘राम नाम जपे तो तर जाइए’ वाली स्थिति होगी। ऐसे में सुनना कि सतनामी समुदाय पर सिर्फ इसलिए प्रहार हुए कि उच्चवर्ग वाले ही 'राम' का नाम जपेंगे तो यह संक्रीण और भ्रमित सोच को दर्शाता है । अपने बचाव के लिए रायपुर जाकर ब्रिटिश समुदाय की मदद माँगने को विवश रामनामी समुदाय समाज में फैली कितनी विसंगतियों का सामना कर रहा होगा, यह समझ में आता है ।

रामनामी समुदाय की टैटू गुदवाने की प्रकिया भी काफ़ी दिलचस्प लगती है, अखिल भारतीय रामनामी महासभा के सचिव गुलाम रामनामी कहते है कि उनका टैटू भगवान राम को चित्रित नहीं करता है बल्कि 'राम राम' को चिन्हित करके वे अंतर मन में इसका दोहराव करते हैं। रामनामी लोग शादी से पहले या 12 -13 साल की उम्र में टैटू गुदवाने की शुरुवात करते है । टैटू की स्याही को मिट्टी के बर्तन में बनाया जाता है, मिटटी के तेल को जलाकर उसकी स्याही को मिट्टी के भीतर की दीवार पर एकत्रित किया जाता है । ये लोग प्रदूषण न करने का भी ध्यान रखते हुए इस प्रक्रिया को नारियल के खोल में संग्रहित करते है ।

हर किसी का टैटू गुदवाने का अलग-अलग कारण है । एक औरत का कहना है कि उनके लिये टैटू गुदवाना पीड़ा दायक रहा, मगर बाद में उन्हें लगा कि वे अपने पूरे शरीर में टैटू गुदवा सकती है। टैटू बनाने में लकड़ी की सुइयों का उपयोग किया जाता है और समुदाय के लोग ही भनक का कार्य करते हैं । सभी अपने पूरे शरीर पर टैटू नहीं गुदवाते है । कुछ लोग अपनी छाती पर टैटू गुदवा लेते है। मगर जो लोग पूरे शरीर पर टैटू गुदवाते है, उन्हें नखिशख कहा जाता है। यह एक तरह की सांस्कृतिक पदानुक्रम है । चेहरे पर टैटू गुदवाने वालो को बदन कहते है, माथे पर टैटू रखने वालो को शिरोमणि कहा जाता है । कुछ लोग टैटू नहीं बनवाते, वे केवल भजन, दैनिक भोजन, कपड़े या शाकाहार से रामनामी समुदाय की परम्परा का निर्वाह करते है।

रामनामी समुदाय के लोग रामचरितमानस के छंद का उच्चारण करते हुए उसे एक पवित्र ग्रंथ मानते है। 100 साल पहले रामनामी समुदाय ने एक मेले का आयोजन किया था । परशुराम की विचारधारा के अनुसार यह मेला सभी गॉंव के लोगो को एकत्रित करने के लिए लगाया जाता है । तीन दिन चलने वाले मेले में संगीत के साथ-साथ कई स्टाल लगाए जाते है । यह लोगों की आमदनी का माध्यम भी है । रामनामी समुदाय के लोग सफ़ेद रंग की पोशाक को धारण करते हैं । महिला स्टॉल रूप में तथा पुरुष शर्ट के रूप में इसे धारण करते है । इनकी पोशाकों पर एक स्याही में डूबा हुआ टुकड़ा अंकित होता है ताकि लम्बे समय तक इसका प्रयोग किया जा सके। मेले का प्रमुख केंद्र राम भजन है । ये मेले में भजन पर नृत्य करते हुए वाद्य यंत्र कास्य घुँघुरु का उपयोग करते है । इनका मानना है कि मेला एक गॉंव में एक ही बार लगना चाहिए । मेले में बनने वाले भोजन को जमीन में छेद करते हुए रसोई बनाकर पूर्ण करते हैं। इनके मेले में विवाह आदि के कार्य भी किये जाते है । 'दहेज़ न देना न लेना' ऐसा संकल्प करते हुए विवाह करना समाज की बुराई को खत्म करने की शुरुवात है ।

मेले के अलावा यह नवरात्रों और पूर्णिमा में भजन संध्या का आयोजन करते हैं। इनकी भक्ति का प्रमुख उद्देश्य केवल भजन-कीर्तन करना है । छत्तीसगढ़ का रामनामी समुदाय निन्म जाति का होते हुए भी भक्ति की पराकष्ठा तक पहुँच चुका हैं । शरीर से लेकर जीभ के तलवे पर टैटू गुदवाने वाले लोगो की संख्या कही अधिक है । भक्ति आंदोलन करने वाले रामनामी समुदाय छत्तीसगढ़ की भूमि को और विशिष्ट बनाते है । पर नई पीढ़ी टैटू बनवाने से परहेज़ कर रही है । बहुत हुआ तो हाथ या माथे पर दो बार राम नाम गुदवाकर अपनी परम्परा का निर्वाह कर लेती है।

मगर यह शिकायत तो हर धर्मं के समुदाय को है कि नई पीढ़ी के बच्चे उनकी प्राचीन धार्मिक परंपरा का पालन करने से बच रहे है । नई पीढ़ी के बच्चो की अपनी सोच है, अपने सपने है, ज़िन्दगी को देखने का अपना नज़रिया है । हम आज की पीढ़ी को किसी परम्परा के निर्वाह हेतु बाध्य नहीं कर सकते और भक्ति तो स्वछंद मन से की जाती है । जिस तरह बाल्मीकि 'मरा मरा' कहकर राम नाम से जुड़ गए उसी तरह कोई भी कैसे राम से जुड़ेगा यह स्वयं राम ही जानते है, जो कण-कण में व्याप्त है। रामनामी समुदाय का बड़ा नमननीय इतिहास और परम्पराएँ है । उनकी भक्ति भी निर्मल और समाज में फैली धार्मिक विषमताओं को नया दृष्टिकोण देने वाली है । इस समुदाय के लोगों का कहना सही है, “सभी का एक ही माँस है चाहे वो हिरण हो या गाय । एक पंक्ति तो गुरुनानक देवजी भी कह गए है

“अव्वल अल्लाह नूर उपाया कुदरत के सब बंदे,
एक नूर ते सब जग उपजाया कौन भले को मंदे,”

'हम सब एक ही प्रभु की संतान है' ये बात सभी महापुरुष हमें समझाकर चले गए है। परन्तु तब भी यह जातिगत भेदभाव समाज की नीव को खोखला कर रहा है । इसलिए रामनामी समुदाय के संघर्ष और उनके सतनाम के प्रति संकल्प को सराहा जा सकता है और भविष्य में 'राम नाम' से धार्मिक जाग्रति में क्रांति भी लाई जा सकती है। वह नाम जो सर्वव्यापी है।

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