भारत विभिन्ताओं का देश है, पूरी दुनिया में हमारी सस्कृति, खानपान, त्योहार और रीति रिवाजों के बारे में बात होती हैI यह हमारा सौभग्य कहिए या किसी पूर्व जन्म का फल कि हमें ऐसी मिट्टी में जन्म मिला, जिसके पास संसार को देने के लिए बहुत कुछ है, तभी तो भारत को विश्व गुरु कहा जाता हैI आज हमारे देश में अठाइस राज्य है और नौ केंद्र शासित प्रदेश हैI हर राज्य में रहने वाली विभिन्न जनजातियाँ अपने अंदर अनोखी और अद्भुत परंपरा समेटे हुए हैंI जिनके बारे में जानकर हैरानी भी होती है और उनकी प्रशंसा करने का मन भी करता हैI आज की पीढ़ी को भी जानना चाहिए कि विभिन्न जनजातियों में निभाई जाने वाली परम्परायें क्या है और वो हमारे जीवन में क्या महत्व रखती हैI
कभी जिंदगी में ऐसा भी होता है, हम किसी मेले में जाए और वहाँ दिल से दिल का मेल हो जाए । यहाँ बात हो रही है राजस्थान की तीसरी सबसे बड़ी जनजाति गरासिया की। इसी जनजाति का सबसे बड़ा मेला चैत्र शुक्ला तृतीया को सिरोही के समीप सियावा में आयोजित होनेवाला 'मनखारो मेलो' माना जाता हैं । 'मनखारो" यानि मन को अच्छा लगने वाला। मेले में गरासिया जाति के युवक अपनी पसंद का जीवन साथी चुनते है। वहीं लड़कियाँ भी यह सोचकर प्रफुल्लित होती है कि मेले में कोई सजना उन्हें अपने देश ले जायेगा । इसलिए मेलो का बहुत महत्व है ।
भीख माँगते समय गीत या भजन गाना तो सबने सुना होगा। मगर भारत विविधताओं का देश है। किसी से कुछ लेने में कला कितनी मददगार साबित होती है। यह हमारे देश की कालबेलिया महिलाओ ने हमें सिखा दिया है। राजस्थान का प्रसिद्ध बांगडिया नृत्य महिलाओं द्वारा भीख माँगते समय किया जाता है। इस नृत्य में इनका मुख्य वाद्य यंत्र चंग होता है। यंत्र चंग आम की लड़की से बना होता है और इसमें चमड़ा लगा होता है। गुलाबों कालबेलिया बांगडिया नृत्य की अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कलाकार है।
प्राचीनकाल से ही भारत में मसालों की राजा कही जाने वाली काली मिर्च काला सोना के नाम प्रसिद्ध से है। तमिलनाडु के नीलगिरि में रहने वाले पनियार समुदाय के लोग प्रकृति पूजा की प्रथा का निर्वाह करते हुए कालीमिर्च के पेड़ो को पूजते हैं। ये लोग कभी भी काली मिर्च के बागानों से नहीं गुज़रते क्योकि इनका मानना है कि अगर ये गलती से वहाँ चले गए तो ये पेड़ इनके सपनों में आकर पूछेंगे कि “तुम बाग में क्यों आए थे?” और फिर इन्हें क्षमा याचना हेतु कुछ न कुछ दान देना होगा । यहीं इनका प्रायश्चित होगा ।
किरांति समूह से ताल्लुक रखने वाली कोईंच जनजाति के एक सदस्य को अनुमति मिलती है कि वह घर बनाने के लिए एक पेड़ को काट सकता है । मगर एक पेड़ काटने के उपरांत, अपनी मातृभूमि के प्रति आभार जताने के लिए उसे दस पेड़ लगाने होंगे। उनका मानना है कि जब एक ओझा या कोई पुजारी अपना शरीर त्यागता है, तो उनका उच्च ज्ञान दिव्य ऊर्जा के रूप में पौधों के विभिन्न प्रजातियों में प्रवेश कर जाता है। यहीं विश्वास आदिवासियों को फर्न, बांस और बेंत की कुछ किस्मों की मनमानी कटाई को करने से रोकता है।
हर साल अप्रैल-मई के महीने में करीब 15 दिनों तक मनाए जाने वाले उत्सव उभौली में किरांति के सदस्य समुदाय के लोगों से कहते हैं कि "मछलियां मत मारो"। क्योंकि पवित्र कथाओं में इस दौरान मछली को मारना पूरी तरह से गलत माना जाता है और इसलिए वे इस पर प्रतिबन्ध लगाते हैं। मगर दिलचस्प बात यह है कि इन 15 दिनों में मछलियां अंडे देने के लिए नदी की ऊपरी धारा में आ जाती हैं और यह अपनी इसी परंपरा का निर्वाह करते हुए मछलियों को पूजने लगते हैं।
एक कहानी भुंजिया जनजाति के समुदाय में प्रसिद्ध है। इनकी मान्यता है, भगवान शिव और माता पार्वती इस क्षेत्र में एक झोपड़ी में रहते थे। जहां तब एक पुतला और पुतली भी झोपड़ी में रखे गए थे और जब भगवान शिव प्रसाद ग्रहण करते है तो चिलम की आग से उस झोपड़ी में आग लग जाती है, और पुतला-पुतली जल जाते हैं। जिसे स्थानीय बोलचाल में भुंजना भी कहा जाता है। पुतली के जलने से ही इस जनजाति का नाम भुंजिया पड़ गया है। मगर अचंभित करने वाली एक और कहानी इस जनजाति की जन संस्कृति की झलक दिखाती है। इनके यहाँ घर बनाने से पहले पुरुष उपवास रखते है और उपवास रखने के दौरान ही ये लोग लकड़ी काटने का काम करते है और पेड़ काटने पर पेड़ से क्षमा माँगते हुए कहते है कि "मुझे लकड़ी की ज़रूरत है, इसलिए पेड़ काट रहा हूँ ।“ भुंजिया जनजाति अपने घर के बाहर रसोई घर बनाते हुए अंदर गेरू रंग से और बाहर लाल रंग से पुताई करते हैं । घर की छबाई पुताई का काम महिलाएं करती है। जिसे ये लाल बगला के नाम से पुकारते है। इसे स्थानीय बोलचाल में बगलाल कहा जाता है। यहीं से लाल बंगला शब्द लिया गया है। ये लोग इस लाल बंगले में खिड़की नहीं बनाते है। सिर्फ़ एक प्रवेश द्वार ही बनाया जाता है।
इनकी रूढ़िवादी परंपरा के अनुसार महिलाएं लकड़ी को लांघ नहीं सकती है। इसलिए घर के दरवाजे में चौखट के नीचे के हिस्से को जमीन में दबा दिया जाता है। ताकि महिलाएं यह याद रखे कि लकड़ी को लाँघना इनके लिए वर्जित है। इनके यहाँ जिसमें जब बच्ची की उम्र 12 साल हो जाती है, तब धनुष के तीर से उसका विवाह कराया जाता है, जिसे कांड कहते हैं । ऐसा करने के पीछे मान्यता है कि इससे जीवन अच्छा और बेहतर हो जाता है । पाँच दिनों तक विवाह की रस्मे चलती है। रोचक बात यह है कि भुंजिया जनजाति में मेंहदी, बिंदी और सिंदूर लगाने पर प्रतिबन्ध है ।
ये जनजाति सफेद वस्त्र के कपड़े पहनती हैं और महिलायें केवल साड़ी पहनती है। पेटीकोट और ब्लाउज का प्रयोग नहीं करती है। इस जनजाति में नाक छिदवाना प्रतिबंधित है पर महिला और पुरुष दोनों कान छिदवा सकते हैं। इनकी परंपरा है कि छह वर्ष के भीतर किसी भी स्थिति में कान छिदवाया जाता है।। मगर ये लोग एक और परम्परा का निर्वाह करते हुए गोदना करवाते हैं। बिना गोदना किए महिलाओं का विवाह नहीं किया जाता है। माना जाता है कि माता-पिता के यहाँ बेटी गोदना बनवाती है। इसके पीछे यह वजह बताई गई है कि जब बेटी को ससुराल में माता-पिता की याद आए तो वह गोदना को देखकर मुस्कुरा सकती है।
भारत देश के यहीं छोटे-बड़े समुदाय हमें बहुत कुछ सिखाते है। एक महानगर में रहने वाला इंसान अगर इनसे कुछ सीखना चाहे तो ये उसे निराश नहीं कर सकते। इनके जीवन जीने की अनोखी कला हमारी संस्कृति को और प्रबुद्ध करती हैं । हालांकि कभी-कभी हम यह सोचने पर विवश हो जाते है कि ये लोग किस दुनिया में रहते हैं। कुछ लोगों के लिए यह दुनिया अजीब हो सकती है, मगर यह भी एक दुनिया है, जो हमारी संस्कृति को परिभाषित करती है ।