"जब दिल ही टूट गया, हम जीकर क्या करेंगे” यह गाना पहली बार आकाशवाणी की प्रमुख प्रसारण सेवा विविध भारती पर सुना थाI मुझे पुराने गानों से जोड़ने का सारा श्रेय मेरी माँ को जाता है, जो घड़ी के आलार्म की तरह सुबह सात बजे रेडियो चला दिया करती थींI तब उस समय सिर्फ़ इतना पता था कि यह देवदास फिल्म से, के.एल.सहगल का गाना हैI ‘फ़िल्म किसने बनाई? क्या कहानी है? ‘ इस विषय में पता भी नहीं था और जानने की कोई रुचि नहीं थींI मगर अब पता चल चुका है कि भारतीय सिनेमा को पहली पार्वती या पारू देने वाले प्रमथेश चंद्र बरुआ के जीवन की कहानी तो बड़ी दिलचस्प हैI इन्हें भारतीय सिनेमा पी.सी.बरुआ के नाम से भी जानता हैI प्रमथेश चंद्र बरुआ ने उस समय फिल्मों में प्रवेश किया, जब भारतीय सिनेमा के फिल्म निर्माता अपनी पहचान बना रहे थे और फिल्म निर्माण के सभी पहलुओं में कुशल बरुआ बंगाली सिनेमा के सबसे बड़े सितारे हुआ करते थे इसलिए जो दर्शक इतिहास को भूल चुके है, उन्हें भारतीय फिल्म इतिहास में अपनी अमिट छाप छोड़ने वाले पी.सी.बरुआ के बारे में बताना ज़रूरी हो जाता हैI

असम के गौरीपुर राजवंश के शाही परिवार में 24 अक्टूबर, 1903 को जन्मे बरुआ का अचानक ही फ़िल्मी दुनिया में आगमन हुआ थाI साल 1924 में, अपनी स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद, जब वह यूरोप गए, तब उन्होंने अपना झुकाव फिल्मों की ओर महसूस किया पर वहाँ से लौटने के बाद कुछ समय के लिए असम विधान परिषद में सेवा की और चित्तरंजन दास की स्वराज पार्टी में शामिल हो गए। लेकिन एक दिन अपने पिता से अनुमति लेकर, वे जल्द ही कलकत्ता चले गए, जहाँ उनका परिचय धीरेंद्रनाथ गांगुली से हुआ और उन्होंने 1926 में, ब्रिटिश डोमिनियन फिल्म्स लिमिटेड के सदस्य के रूप में अपने फिल्मी करियर की शुरूआत की। और 1929 में, वह पहली बार सिल्वर स्क्रीन पर पंचशार नामक फिल्म में दिखाई दिए, जिसे देबकी कुमार बोस ने निर्देशित किया था।

वर्ष 1930 में, उनके पिता राजा प्रभात चंद्र बरुआ ने गुर्दे की पथरी को निकलवाने के लिए प्रमथेश को इंग्लैंड भेजा। सफल ऑपरेशन के बाद, वे इंग्लैंड से पेरिस चले गए और वहाँ उन्होंने सिनेमेटोग्राफी का गहन प्रशिक्षण प्राप्त किया और फ़िर पेरिस से आधुनिक प्रकाश उपकरण खरीदने के बाद, वे कलकत्ता लौट आए और कलकत्ता में अपने निवास में बरुआ फिल्म यूनिट और बरुआ स्टूडियो की स्थापना की। इसके बाद उन्होंने वर्ष 1931 में, देबकी कुमार बसु के निर्देशन में अपनी पहली मूक फ़िल्म अपराधी बनाई, जिसमें उनकी मुख्य भूमिका थी। भारतीय सिनेमा के इतिहास में अपराधी पहली भारतीय फिल्म थी, जिसे कृत्रिम रोशनी में शूट किया गया था, वरना इससे पहले भारतीय फिल्मों की शूटिंग सूर्य की परिवर्तित किरणों की सहायता से होती थी।

वर्ष 1932 में, जब बोलता सिनेमा आया तो उन्होंने बंगाल-1983 नाम से अपनी पहली बोलती फिल्म बनाई। इस फ़िल्म को 8 दिनों में शूट किया गया था, जिसमें प्रमथेश बरुआ की दृढ़ता और एकनिष्ठता दिखाई गई थी। मगर फिल्म की असफलता ने बरुआ के पास अपनी कंपनी को बंद करने के अलावा कोई विकल्प नहीं छोड़ा। साल 1933 में, न्यू थियेटर्स में शामिल होने के बाद बरुआ फिल्म-निर्माता के रूप में अपने करियर के चरम पर पहुँच गए। उन्होंने फिल्म-निर्माण के सभी तकनीकी पहलुओं; निर्देशन, अभिनय, पटकथा, , फोटोग्राफ रचना, संपादन लेखन में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया। वर्ष 1934 में, बरुआ द्वारा निर्देशित हिंदी-बंगाली फिल्म रूपलेखा ने भारतीय सिनेमा में पहली बार कहानी कहने के लिए फ्लैशबैक(वर्तमान से पहले) तकनीक पेश की।

फिर साल 1935 में, प्रमथेश बरुआ देवदास लेकर आए। यह पहली बार नहीं था कि बंगाल के सुप्रसिद्ध लेखक शरत चंद्र चटर्जी के दुःखद नायक को भारतीय फिल्मों में रूपांतरित किया गया था, लेकिन बरुआ का देवदास का चित्रण इतना जीवंत था कि इसने दुःखद नायक को एक किंवदंती (ऐसी बात जिसे परंपरा से सुनते चले आए) बना दिया। उन्होंने बंगाली, हिंदी और असमिया तीनों संस्करणों में देवदास का निर्देशन किया और बंगाली संस्करण में मुख्य भूमिका निभाई पर 1936 में आई, देवदास के हिंदी संस्करण में के.एल. सहगल फिल्म के नायक थें। सिनेमा के विद्वानों का कहना है कि यह भारत की पहली सफल सामाजिक फिल्म थी और इसने भारतीय सामाजिक सिनेकला के पूरे दृष्टिकोण को बदल दिया था। देवदास को 'इंटरकट टेलीपैथी शॉट' (बिना उपकरण की मदद से लोगों से संपर्क करने की कला) की तकनीक की शुरूआत करने के लिए विश्व सिनेमा में एक मील का पत्थर भी माना जाता है। हिंदी-बंगाली भाषा में बनी देवदास की नायिका जमुना बरुआ प्रमथेश बरुआ की तीसरी पत्नी थीं।

प्रमथेश बरुआ द्वारा साल 1937 में बनाई गई फिल्म मुक्ति का महत्वपूर्ण पहलू यह था कि फिल्म का एक बड़ा हिस्सा असम की प्राकृतिक सुंदरता की पृष्ठभूमि में शूट किया गया था। यथार्थवादी फिल्म निर्माताओं ने इस फिल्म से प्रेरित होकर लगभग दो दशक बाद बाहर शूट करने की पहल की। उनकी 1938 में, अधिकार, 1939 में रजत जयंती, और 1940 में ज़िंदगी जैसी फिल्मों ने कलात्मक और तकनीकी सिनेमा का नया अध्याय लिखा। हालाँकि बरुआ ने 1939 में, न्यू थिएटर छोड़ दिया और एक फ्रीलांसर के रूप में काम करने लग गए।

एक शाही परिवार में जन्मे, राजकुमार से अभिनेता-निर्देशक बने बरुआ ने नाटकीय अभिनय के नाटकीय तरीके को वास्तविक जीवन स्थितियों के संवादी तरीके में बदल दिया। एक अभिनेता-निर्देशक के रूप में उनका उदय, उनके निजी जीवन में दुःखद असफलताओं से मेल खाता था। आश्चर्यजनक रूप से उनके जीवन का अंतिम पड़ाव उस नायक से मिलता जुलता था, जिसे उन्होंने प्रसिद्ध देवदास बनाया था। शराब के अत्यधिक सेवन के कारण, वह तपेदिक रोग से ग्रस्त हो गए, और 1951 में उनकी असामयिक मृत्यु हो गई। बरुआ के अनुसार उनके जीवन का सबसे रोमांचक पल वो था, जब ढाका में वह देवदास के रूप में दिखाई दिए, तो सभी सिनेमा घर बंद थे क्योंकि पूरा शहर उन्हें व्यक्तिगत रूप से मंच पर प्रदर्शन करते देखना चाहता था। आज भारतीय सिनेमा एक सुखद तकनीकी युग देख रहा है, अब तो फिल्मों को और आकर्षक बनाने के लिए विदेशों से भी नई तकनीक खरीदी जा रही हैं, चाहे एक्शन, रोमांस, क्राइम या डरावनी फिल्म हो हर जगह निर्देशक दर्शकों को कुछ न कुछ नया दिखाना चाहता है। मगर यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि जब भी कोई सिनेमा के आधुनिक रूपरेखा की शुरूआत की बात करेंगा, तो प्रमथेश चंद्र बरुआ को हमेशा याद किया जायेगा।

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