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जब पहली बैजू बावरा देखी तो पता चला कि तानसेन से भी बड़ा कोई गायक हुआ करता था। जब तानसेन को अपने संगीत पर इतना अहंकार हो गया था तो एक बैजू बावरा जैसे महान गीतकार ने उसे यह एहसास दिलाया कि कला सिर्फ राज दरबारो तक सीमित नहीं हैं बल्कि एक गौव की गलियों में रहना वाला आम बालक भी ऊँची शिक्षा-दीक्षा लेकर ज़मीन से जुड़ा रह सकता हैं। अगर यह फिल्मे माध्यम ने बने तो आने वाली पीढ़ी ऐसे विलुप्त होती सच्ची कहानियो से जुड़ नहीं पाएंगी और एक अधूरे ज्ञान को जीना भी बुद्धि और हृदय दोनों को नुकसान पहुचाता हैं। वर्ष १९६४ में आई हकीकत फिल्म भारत और चाइना के बीच हुए युद्ध को दर्शाती हैं । पड़ोसी देश का धोखा और देशभक्ति का मिश्रण हमारे जवा खून को जोशीला बनाता हैं । १९६५ में शहीद फिल्म भी इसी श्रेणी की उच्चतम फिल्म हैं। १९६० में आई मुग़ले-ए-आज़म फिर ताजमहल जैसी ऐतिहासिक फिल्मे इतिहास के छात्रो के लिए एक शोध का विषय बन चुकी हैं, हालाकि इतिहास में कोई अनारकली या सलीम की प्रेमकहानी हो या न हो पर सलीम ने अपने पिता से बगावत की थी, यह सच हैं । इसी सच में आती हैं शाहजहाँ और मुमताज की प्रेमकहानी जिसने दुनिया का एक आठवां अजूबा ताजमहल बना दिया । इस फिल्म के आने से हमने मुग़लों के बारे में पढ़ा और जाना कि यह भी भारत की जीवनी के पात्र हैं।
थोड़ा आगे बढ़े तो यह कहना गलत न होगा की बॉर्डर और एल. ओ. सी. लड़ाई पर बनी फिल्मे हमारे देश में चल रहे संघर्ष को दर्शाती हैं । क्राइम पर बनी फिल्मो की बात करे तो तलवार और नो वन किल्ड जेसिका ने तो पूरे देश में सनसनी पैदा कर दी। न्याय और अन्याय की जंग में किस तरह आम आदमी भी जुड़ा हुआ हैं, यह कहानिया पत्रकारिता के नए आयाम प्रस्तुत करती हैं । मनोरंजन और सिनेमा का शौक़ीन जागरूक इन्ही कहानियो को देखकर हो रहा हैं । पिछले दिनों प्रसिद्ध लोगो पर बनी फिल्मो ने लोगो को नए व्यक्तित्व से परिचित कराया हैं । मंगल पाण्डे, मेरी कोम, भाग मिल्खा भाग, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, दंगल, एम्.एस. धोनी, अजहर, और संजू या यूँ कहें संजय दत्त की कहानी भी लोगो ने खूब पसंद की हैं। यह अत्मकथात्मक शैली पर बनी फिल्मे आवाम को कुछ नया सोचने पर विवेश करती हैं । एक प्रेरणा बनती ये फिल्मे नए बच्चो को जीवन की दिशा निधारित करने में मदद करती हैं। अक्षय कुमार की आई गोल्ड और सूरमा भी सच्चे हॉकी के इतिहास को दिखाती हैं। एक राष्ट्रीय खेल को अगर भारतीय समझ पा रहा हैं तो इसका श्रेय इन्ही फिल्मो को जाता हैं ।
पैडमैन ने भी संकुचित सोच को एक विशाल मैदान दिया हैं जहां वो विकसित हो सकती हैं। अगर हम सीख ही रहे हैं तो मांझी द माउंटेन मैन फिल्म हमे बहुत कुछ सिखाती हैं। जब इस देश का युवा और बूढ़ा पहाडों में रास्ता बनाने और ज़मीन पर रहने वाले लोगो की परवाह करना सीखता हैं तो वही साहस और प्रेम पत्रकारिता की सफलता को तटस्थ करती हैं । इस देश की एक दूषित राजनीति और बेवजह का बवाल भी तथा समाज में क्या सही हैं क्या गलत इस सवाल को उजागर किया संजय लीला भंसाली की फिल्म पद्मावती न पूरे देश में जातिवाद को कितना बढ़ावा मिलना चाहिए और वोट बैंक किसी एक समुदाय का कैसे बढ़े यह कार्य तो कोई टीवी चैनल भी नहीं कर पाए, वहीं इस फिल्म ने एक नयी राजनीतिज्ञ पत्रकारिता को जन्म दिया। सच तो हैं कि कोई पद्मावती हुई हैं, परन्तु जिसे इस देश का बच्चा नहीं जानता, वो इतिहास फिर से पढ़ा गया । सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर लोगो ने जो लिखा वह उन्हें भी रिपोर्टर या लेखक बनाता हैं। जहाँ हम आम आदमी को एक नए मंथन की और मोड़ते हैं वही उन्हें दकियानुसी कहानियो से भी परिचित कराते है, जो देश के किसी राज्य में घटित हुई है । सरबजीत फिल्म ने एक बार फिर पाकिस्तान सरकार के प्रति जो लोगो के अन्दर गुस्सा पैदा किया तथा हमारी देश की असफल नीति के चलते एक मासूम को कैसे अपनी जान गवानी पड़ी। इस मुद्दे पर लोगो ने अपने विचारो में जो रोष दिखाया वो सराहनीय था। एयरलिफ्ट जैसी फिल्म ने तो जनता के अन्दर भारतीय सेना और कुवैत में फँसे भारतीयों के डर और धैर्य की कहानी से समूचा राष्ट्र हिल गया ।
राजकुमार राव की फ़िल्म स्त्री १९९० कर्नाटक के किसी गॉव में बसे लोगो के अन्धविश्वास या एक विचित्र सत्य को उजागर करती हैं। की किस तरह कोई भूतिया स्त्री लोगो को मारती हैं । पर इस कहानी का मुख्य उद्देश्य लोगों के अन्दर नारी के प्रति आदर और सम्मान उजागर करना हैं। जिसमे यह फिल्म काफी हद तक सफल भी हुई हैं। आजकल जो बच्चा किताबें नहीं पढ़ने का शौक रखता हैं या फिर उस युवा के पास समय नहीं हैं जो प्रतिस्पर्धा के युग में दौड़ता ही जा रहा हैं वह अगर कुछ देर विश्राम करने की सोचता हैं तो उसकी पहली पसंद फिल्मे होती हैं पुस्तको से बोरियत महसूस करने वाला छात्र भी फिल्म देखकर ज़िन्दगी को थोडा मनोरंजन देता हैं। और अगर ऐसे में सच्ची कहानी उसे समाज से संपर्क तथा अपने विचार रखने में मदद करे तो क्या मीडिया और संचार की दुनिया का विकास नहीं होगा । इसीलिए जिस तरह रामायण और महाभारत या धार्मिक विषय पर बनी एनिमेटेड फिल्मे जैसे गणेशा, कृष्णा और हनुमान नन्हे मुन्नों को भी ज्ञान के साथ- साथ कहीं न कहीं जन संपर्क के सीढ़ी के पहले पायदान पर चढ़ाने का काम करती हैं । जो सराहनीय भी है। और एक तरह का एक शोध हैं जिसमे हमारे फ़िल्मकार काफी हद तक सफल होते हैं । यह फिल्मो का एक नया दौर चल रहा हैं । जिसमे बहुत परिवर्तन हो रहें हैं, क्योंकि आज की युवा पीढ़ी मनोरंजन के साथ-साथ ज्ञान और सच भी मांगती हैं। ५०० रुपए खर्च करने वाला आम आदमी कुछ ख़ास चाहता हैं, जिसे वो भी समाज और देश की गतिविधियों से जुड़कर कुछ सहयोग भी दे सके। यही तो आधुनिक पत्रकारिता की सही और नयी परिभाषा बनती जा रही हैं ।