बचपन में किसी महान और विद्वान महापुरुष के यह अनमोल वचन सुने थें कि "अगर पुरुष पढ़ता है तो सिर्फ वो पढ़ता है और एक नारी पढ़ती है तो पूरा परिवार पढ़ लेता है" । वही ज्योतिबा फुले ने भी कहा था अगर नारी के लिए शिक्षा के द्वार खोल दिया जाएँ तो वह समस्त समाज को शिक्षित कर सकने में सक्षम है। यहीं कारण रहा होगा कि उन्होंने अपनी पत्नी को शिक्षित करके भारत की प्रथम महिला शिक्षिका बना दिया । सावित्री जी जब लोगों को अपनी बेटियों को पढ़ने भेजने के लिए आग्रह करती तो उन्हें गालियाँ, अपशब्द और पत्थर मिलते थें। मगर उन्होंने हार नहीं मानी और शिक्षा के दीपक के प्रकाश से अनगिनत बेटियों का भविष्य प्रकाशित कर दिया । लक्ष्मीबाई डोंगरे जो पंडिता रमाबाई सरस्वती की माँ थीं । उन्हें भी उनके पति अनंत शास्त्री डोंगरे ने शिक्षित किया । शिक्षा की उपयोगिता समझते हुए उन्होंने अपनी बेटी को भी संस्कृत की शिक्षा दी । उसी शिक्षा से अभिभूत होकर वे पंडिता की उपाधि से विभूषित हुई । भारत का इतिहास सिर्फ एक -दो नारी के नाम से अलंकृत नहीं हो रहा, यहाँ तो जीजाबाई, राससुंदरी देवी, रानी दुर्गावती, रानी लक्ष्मी बाई जैसी कितनी ही नरियों ने देश को गौरवान्वित किया है । अगर हिन्दू धर्म से इस्लाम की ओर उन्मुख हुए तो चाँद बीबी, नूरजहाँ, बेगम हज़रत महल हाज़रा बेगम, फातिमा शेख और रजिया सुल्तान जिनके पिता ने उन्हें अपने बेटों से ज़्यादा तरजीह देते हुए पहली मुस्लिम शासक बनाकर सबको अचंभित कर दिया था ।
वर्तमान में महिलाओं की सहभागिता कहाँ नहीं है। शिक्षा से लेकर राजनीति तक हम महिलाओ का वर्चस्व देखते हैं । औरतों को अधिकार मिले नहीं है। उन्होंने उसे ख़ुद को साबित करने के बाद लिया है । पूरी दुनिया पुरुष प्रधान बनी हुई है । फर्क सिर्फ़ इतना है कि अब लोग नारी शक्ति को सकरात्मक मानते हुए उसे स्वीकार कर रहे हैं । मगर तालिबानी ऐसा करने में विफल है । क्योंकि जो बात मैंने बचपन में सुनी थीं, वही बात उन्होंने भी सुनी है और देखी है । तभी उन्हें औरतों से खौफ आता है । कहीं ये पढ़-लिख गई तो पूरे समाज को जागरूक कर देगी और उनकी ताकत से कौन डरेगा । यह डर का कारोबार उन्होंने पूरी दुनिया मैं फैलाया है वह तो घाटे में चला जाएगा । इसलिए इस्लाम का हवाला देकर इन्हे दबाते रहो, कुचलते रहो ताकि किसी भी तरह की चिंगारी इनके इस कारोबार को जला कर राख न कर दें ।
"औरतें सिर्फ बच्चा पैदा करने के लिए होती है " यह कथन तालिबानियों के मुँह से सुनकर उनके डरपोक होने का यकीन और भी पुख्ता हो जाता है । हाथ में हथियार लेकर बेकसूर लोगों को मारना किसी भी तालीम का सबक नहीं है । यह बात औरतें जानती है और विद्रोह भी कर सकती है। उनका विद्रोह उनकी बारूद से ढकी ज़मीन को उखाड़ सकता है । तभी तो वे नारी के अस्तित्व को बंदूक की नौक पर रख अत्याचार करते रहते हैं। अफ़ग़ानिस्तान से आदमी, महिला, बच्चे क्यों भागना चाहते है । इसका एक ही जवाब है; आदमी औरतों का साथ दे नहीं पायेगा क्योंकि उसकी मजबूरी की वो ख़ुद ही बंदूक के आगे बेबस सा है । हमेशा की तरह वहां की महिलाएँ अपने आत्मसम्मान से समझौता कर जानवरों सा जीवन बिताने को विवश होगी और अपने बच्चों को भी बेख़ौफ़ माहोल देने की उनकी कोशिश बेकार हों जाएँगी । हमेशा से ही ऐसा होता आया है, चाहे सतयुग हो जहाँ रावण ने अपनी वीरता सीता पर दिखाई, गौतम ऋषि ने अहिल्या को निर्दोष न समझते हुए श्राप दे दिया। जबकि वो जानते थे कि अक्षम्य कौन है । द्वापर में द्रौपदी सती को वेश्या समझ उसे अपमानित किया गया । अम्बा भी भीष्म के बाहुबल के आगे अपना सर्वस्व गँवा बैठी। उसे न शल्य ने स्वीकार किया न ही इस समाज ने अपनाया । कलयुग तो अपने कुकर्मों के लिए जाना जाता है । कोई रानी हों या प्रजा की नारी, चाहे विश्व युद्ध हों या देश विभाजन सभी ने नारी को कमज़ोर समझ उस पर अपना पौरुष दिखाया और जब इसी नारी ने विद्रोह किया तो चली परिवर्तन की हवा जो आंधी बन समूचे विश्व की संकुचित दृष्टि को धूमिल कर गई। मगर कुछ कट्टरपंथियों ने औरतों को कभी भी बराबरी का दर्ज़ा नहीं दिया । सच तो यह बराबरी नहीं हो सकती क्योंकि महिलाएँ अपने कर्मो से बहुत ऊँचा स्थान रखती है । तभी तो कहा गया है :
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ।
जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है, वहाँ देवता निवास करते हैं और जहाँ स्त्रियों का सम्मान नही होता है, वहाँ किये गये समस्त अच्छे कर्म निष्फल हो जाते हैं।
कहाँ तो यह भी गया है :
शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम् ।
जिस कुल में स्त्रियाँ कष्ट भोगती हैं ,वह कुल शीघ्र ही नष्ट हो जाता है ।
धर्म का अर्थ है दया । आप किसी भी धर्म के अनुचर हों और राजा बनने के बाद आप अपनी प्रजा को कष्ट देते हों । आपके राज्य में बच्चे, नारी इनकी आज़ादी का हनन हो रहा है तो आप अधर्मी की श्रेणी में आयेगे । इस्लाम धर्म बहुत विराट है, कितने ही महान पीर-फ़कीर हुए हैं । राबिया बसरी भी एक ऐसी ही संत महिला थीं जिन्होंने कितने ही व्यभिचारी मनुष्य का ह्रदय निर्मल कर उनके जीवन को सही मकसद दिया। फिर तालिबानियो का अपना अनुपम इतिहास न पढ़ पाना भी एक विडम्बना है ।
परदे में सिमटी , सिसकती महिला ही तालिबानी को अपने राज्य में चाहिए । अगर उन्हें पढ़ा देंगे तो वह सवाल पूछेंगी इसका मतलब उनके मुँह में ज़बान आ जायेगी और वे अपने परिवार को भी बोलना सिखा देगी । फ़िर इन तालिबानियों का तख्ता पलट होने में कितनी देर लगेगी ।
मलाला यूसफज़ई के पिता ने उनसे कहा था कि "तुम चाहो तो परदे में रहकर 'किताबों को सपना समझकर देखती रहो या फिर इन्हें पढ़ने के स्कूल जाओ और गोली खाओ । रास्ता तुम्हें चुनना है । चौदह साल की मलाला ने गोली खाने का रास्ता चुनते हुए तालीम लेना शुरू किया और अपने साथ-साथ दूसरी लड़कियों को शिक्षा के लिए प्रेरित किया । नतीज़ा जान गवाने की नौबत आ गई । मगर हिम्मत और बहादुरी की मिसाल मलाला ने मौत को हरा दिया और नोबेल पुरुस्कार से सम्मनित हुई । यही बहादुरी तालिबान को रात को सोने नहीं देती है। कहीं उनकी हकूमत में लाखों मलाला न खड़ी हो जाये । इस ख्याल के डर से ही नुकीले जूते और बंदूको को हमेशा अपने पास रखते हैं । वह उन्हें गुलाम बनाकर उन्हें भोग की वस्तु समझकर उनकी अंतरात्मा को शोषित करते है ।
रात की सुबह तो होकर रहेगी । समय बड़ा बलवान है । किस नारी शक्ति का सूर्य उदय होगा या फिर किस पुरुष की प्रेरणा बनकर वो इस अत्याचार के अंधकार को पराजित करेगी, यह कहना अभी संभव नहीं है । फिलहाल यह सकते कि 'डर अच्छा है" ।