एक लेखक की कलम का दायरा सीमित नहीं होना चाहिए। उसे हर सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक क्षेत्रों में सक्रिय होने के साथ साथ देश की अनोखी कला और अनुपम परम्परा के बारे में लिखकर पाठकों के मन और मस्तिष्क को कुछ नया और रोचक पढ़ने को देना चाहिए। हमारा देश तो सर्वगुण संपन्न है, इसे विश्व गुरु की उपाधि भी प्राप्त हुई है। इस देश में कितने बाहर के लोगों का आगमन हुआ। जिसमें से कुछ लोग चले गए तो कुछ यहीं रचबस गए इसके परिणाम स्वरूप हमारे देश को विरासत में अद्भुत संस्कृति और सभ्यता देखने को मिली । समय के चलते हमने हर संस्कृति और कला को अपनाया और उसे लेकर आगे बढ़ते गए। भारत का हर राज्य देश को ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ बनाने का भरसक प्रयास करता है और उसमे सफल भी होता है। यह भी एक विंडबना है कि देश की युवा पीढ़ी देश में व्याप्त कई कलाओं से अनजान है, इसलिए एक लेखक का कर्त्तव्य है कि वह अपनी कलम से जटिल विषयों से लेकर संवेदनशील विषयों को भी आलोकित करें, देश के प्रतिभान लोगों और उनके द्वारा किए गए कार्यों का भी उल्लेख करें। इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत का कोई कोना ढूँढ लो आपको हर जगह एक प्रतिभा देखने को मिल जाएगी इसलिए आज आंध्र प्रदेश में स्थित निर्मल शहर के शिल्पकारों के कला समुदाय जिनके निर्मल चित्रों ने देश को एक अलग सराहनीय पहचान दी है। लकड़ी पर बने यह चित्र देश में ही नहीं बल्कि समूचे विश्व में मशहूर है। लोग दूर-दूर से इनकी यह कला को देखने और अपने घर में सुशोभित करने के लिए खरीदने भी आते हैं । यह कला कई शती पुरानी है, इसलिए कैसे इस चित्रकला को किया जाता है, यह जानकर हम इनकी मेहनत और कला की प्रशंसा किये बिना नहीं रह सकेंगे।
भारत को विविधताओं का देश कहा जाता है। और कला के सन्दर्भ में भी भारत बहुत समृद्ध है। अगर देखा जाए तो चित्रकारी, हस्त कलाएँ, गीत-संगीत, अभिनय, साहित्य, भवन निर्माण आदि सभी कला की परिधि में शामिल किए जाते हैं । कला के विभिन्न रूपों में ‘चित्रकारी’ कला का वह लघु रूप है, जो रेखाओं और रंगों के माध्यम से मानव चिंतन और भावनाओं को अभिव्यक्त करता है। प्रागैतिहासिक(इतिहास में निश्चित काल से पहले का समय) काल में मनुष्य गुफाओं में रहता था, तो उसने गुफाओं की दीवारों पर चित्रकारी की। धीरे-धीरे नगरीय सभ्यता का विकास होने पर यह चित्रकारी गुफाओं से निकलकर वस्त्रों, भवनों, बर्तनों, सिक्कों, कागज़ों आदि पर आ गई। वर्तमान में बिहार की मधुबनी चित्रकारी और ओडिशा की पत्ताचित्र चित्रकारी बेहद प्रसिद्ध है। तो वहीं, भारत के तेलंगाना के निर्मल जिले में प्राकृतिक रंगों के उपयोग से बनाई गई, निर्मल चित्रकारी पारंपरिक भारतीय लोककला का एक अनुपम उदहारण है।
आदिलाबाद का एक आदिवासी शहर निर्मल तेलचित्रों के लिए विश्व प्रसिद्ध केंद्र है। निर्मल शहर के नाम पर ही निर्मल पेंटिंग का नाम रखा गया है। इतिहासकारों का कहना है कि निर्मल पेंटिंग की शुरुआत 400 साल पहले निर्मल में हुई थी, और 14वीं शताब्दी में काकतीय राजवंश के शासनकाल में कला समुदाय के कारीगरों द्वारा इसका विकास हुआ था, जिन्हें 'नकाश' कहा जाता है। प्रारंभिक समय में कारीगरों ने इन खूबसूरत पेंटिंग्स को लकड़ी के फर्नीचर और किले की दीवारों पर उकेरा था। फिर कुछ शतकों बाद निजाम के राजा निर्मल से कुछ कारीगर लाए और हैदराबाद में शिल्प की स्थापना की।
नक्काश आंध्र के निर्मल शहर में रहने वाले चित्रकारों का एक समुदाय है। सदियों से कलाकार कैनवास पर रंगीन निर्मल पेंटिंग बनाते आ रहे हैं। निर्मल चित्रों के विषय भारतीय महाकाव्यों, पौराणिक कथाओं और प्रकृति से लिए गए हैं। लाख की लकड़ी का यह रूप युगों से एक आकर्षण बना हुआ है, और आज हैदराबाद और निर्मल दोनों जगह चित्रकारी की जाती है। उपयोग किए गए रूपांकनों(डिज़ाइनिंग) में, पुष्प डिजाइन, अजंता और एलोरा और मुगल लघुचित्रों के भित्ति चित्र हैं। निजाम शासकों द्वारा अपने राज्य की कला और संस्कृति को बढ़ावा देने और शाही दरबार के मनोरंजन के साधन के रूप में भी इस कला का विकास किया गया था, इसलिए निर्मल चित्रकारी पर मुग़लों का प्रभाव देखने को मिलता है।
आरम्भिक समय में, टेला पोंकी पेड़ की सफेद लकड़ी को पेंट बोर्ड के रूप में चित्रकारी के लिए प्रयोग किया जाता था, तथा गोदावरी नदी के किनारे मिलनेवाले रंगीन पत्थर और प्राकृतिक पौधों का इस्तेमाल रंगों और अन्य सामग्री के लिए होता था। पर बदलते समय के साथ कारीगरों ने भारतीय सागौन की लकड़ी को इसकी मुलायम बनावट, ताकत, हल्के वजन और जीवन भर की गुणवत्ता के कारण पेश किया। कभी-कभी ग्राहक की पसंद के अनुसार लकड़ी बदल भी दी जाती है।
वर्तमान समय में, तेल पेंट और स्प्रे पेंट और ऐक्रेलिक रंग फेविकोल के साथ मिश्रित होते हैं और पेंटिंग के लिए उपयोग किए जाते हैं। चिकनी लकड़ी या रचना बोर्ड पर चाक में पारंपरिक डिजाइनों का पता लगाया जाता है, और फिर सपाट, चमकीले रंगों में चित्रित किया जाता है और अक्सर सोने और वार्निश(लकड़ी पर उपयोग किए जाने वाला तैलीय तरल) के साथ छुआ जाता है। एक बार जब पेंटिंग पूरी हो जाती है तो पानी के प्रतिरोध और चमक के लिए फ्रेम पर स्पष्ट स्प्रे का छिड़काव किया जाता है। और आंध्र प्रदेश सरकार के लेपाक्षी संगठन के माध्यम से पेंटिंग ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका और इंग्लैंड को निर्यात की जाती हैं।
कला भारतीय संस्कृति का अहम् हिस्सा हैं। भारत की कलाएँ और उनसे जुड़ी कृतियाँ बहुत ही पारम्परिक और साधारण होने पर भी देश के समृद्ध और गौरवशाली विरासत से परिचित करवाती है। और चित्रकला तो उन प्रमुख माध्यमों में से एक है, जिनका प्रयोग भारतीय कलात्मक परंपरा को अभिव्यक्त करने के लिए किया जाता रहा है। आज आधुनिक भारतीय चित्रकारों ने रंगों, डिजाइनों एवं शैलियों का प्रयोग करते हुए निर्मल चित्रकारी की वैश्विक स्तर पर एक उत्कृष्ट पहचान बनाई है। यह कला केवल उल्लास, हर्ष और आनन्द को प्रकट करने का माध्यम ही नहीं है, बल्कि समाज को परिवर्तन की ओर भी उन्मुख करती है और उसमें एक नवीन चेतना जाग्रत करती है। इसलिए राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने अपना मत व्यक्त करते हुए कहा है कि ”अभिव्यक्ति की कुशल शक्ति ही कला है”, उनका यह कथन चित्रकला के सन्दर्भ में बिल्कुल सार्थक प्रतीत होता है।