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11 मई को हाई कोर्ट ने दिया एक असमंजस फैसला। मैरिटल रेप पर दाखिल एक जनयाचिका पर फैसला देते हुए जजों की पीठ में से एक जज ने इसे अपराध की श्रेणी में रखा तो दूसरे न्यायाधीश का कहना है कि, "इसे समाज पर गलत असर पड़ेगा। नतीजन, यह याचिका सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर दस्तक देने पहुँच गई और सुप्रीम कोर्ट ने इस पुकार के फैसले पर इंतज़ार की मोहर लगा दी। ऐसा क्यों होता है कि औरतों को सीता, अहिल्या, द्रौपदी जैसी देवियाँ कहने के बावजूद अग्नि परीक्षा, दंड और श्राप जैसे परिणाम भी झेलने पड़ते है। पर इस समाज में पुरुष तो पैदा ही अधिकार के साथ हुआ है, जिसके वर्चस्व पर सवाल उठाना भी हीन समझा जाता है। प्रकृति और पुरुष के मेल से ही दुनिया चल रही है इसलिए यह प्रक्रिया गलत नहीं है। मगर प्रकृति के साथ खिलवाड़ करना ग़लत है। किसी के साथ फेरे लेकर, उसके गले में मंगलसूत्र डालकर उसकी अस्मिता को रौंदने का नाम 'विवाह' नहीं है।

पिछले दिनों एक वेबसाइट पर एक औरत ने लिखा कि, "मेरे पति ने मेरे साथ दो बार बलात्कार किया।" उसने दोनों बार की विभित्स स्थिति को बड़े विस्तार से बताया। यह किसी एक की कहानी नहीं है, ऐसी कितनी ही कहानियाँ किसी अपने द्वारा की गई जबरदस्ती को बयां करती है। इस विषय पर फिल्मे भी बनकर फ्लॉप हो चुकी है। क्योंकि समाज के अनुसार "ऐसा थोड़ी न होता है।" उनके हिसाब से दो चुटकी सिंदूर का मतलब है; पत्नी कानूनी तौर पति की प्रॉपर्टी बन जाती है। लोगों से ही समाज बनता है और वे लोग शादी योग्य लड़की को यही समझाते है कि पति को "न" नहीं कहा जाता। कोई सोचे, पतियों में कौन से ऐसे देवता सम गुण है, जिसके कारण वो 'न' नहीं सुन सकता। इकीसवीं सदी की ओर बढ़ते भारत ने "पति परमेश्वर" जैसे शब्दों को पीछे छोड़ दिया है। फ़िर क्यों मैरिटल रेप पर कानून बनाने की ज़रूरत है? इस सवाल का एक ही जवाब है; "बेलगाम जानवर पर जब तक अंकुश नहीं लगेगा, तब तक वह आपको चोटिल करता रहेगा।" अगर कुछ धर्मी तलाक को 'उर्दू ' का शब्द कहकर तर्क करते है तो 'बलात्" शब्द तो संस्कृत से आया है, उसके लिए कोई कुछ नहीं कहेगा । आईपीसी की धारा 375 का अपवाद 2 है, जिसमें कहा गया है कि एक पुरुष द्वारा अपनी पत्नी पर किया गया कोई भी यौन कार्य तब तक बलात्कार नहीं है, जब तक कि पत्नी नाबालिग न हो। इस कानून का विस्तार है कि अगर पत्नी 15 वर्ष की आयु पार कर चुकी है तो सम्बन्ध बनाने में उसकी मर्ज़ी शामिल है। अब तो विवाह की उम्र 21 साल की गई है तो फ़िर इस कानून का क्या औचित्य रह जाता है।

कब-कब मैरिटल रेप पर कानूनी लड़ाई लड़ी गई?

2015 - में एक एनजीओ आरआईटी फाउंडेशन ने दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका दायर की और बलात्कार कानून में 'विवाह अपवाद' की वैधता को चुनौती दी। इस मामले में सुनवाई शुरू हुई थीं, उसके बाद हाईकोर्ट ने केंद्र और दिल्ली सरकार को नोटिस जारी किया।

2016 - इस नोटिस के ज़वाब में केंद्र ने एक हलफनामा दायर करते हुए कहा कि वैवाहिक बलात्कार को अपराध नहीं बनाया जा सकता क्योंकि इसका भारतीय समाज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।

2017 - में एक बार फ़िर ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक वूमेन्स एसोसिएशन (एआईडीडब्ल्यूए) और वैवाहिक बलात्कार पीड़िता खुशबू सैफी ने इसी तरह की याचिकाएं दायर कीं।

मगर उसी वर्ष, केंद्र ने याचिकाकर्ताओं के द्वारा प्रस्तुत याचिकाओं का विरोध करते हुए फ़िर एक हलफनामा दायर किया, जिसमें कहा गया था कि वैवाहिक बलात्कार को आपराधिक अपराध नहीं बनाया जा सकता क्योंकि ऐसा कोई कानून बनाना "विवाह की संस्था को अस्थिर कर सकता है"। इस हलफनामे ने कई सालो तक न्याय स्थगित किया गया ।

दिसंबर 2021 - में इस मामले पर पुनः सुनवाई शुरू की गई ।

जनवरी 2022 - में केंद्र ने उच्च न्यायालय में यह स्पष्टीकरण देने हेतु यह याचिका दाखिल करी कि इससे "आपराधिक मुकदमों की बाढ़ खोल जायेगी" और इस बाढ़ में झूठे आरोप भी बहकर बहुत घर तहस-नहस कर सकते हैं।

1 फरवरी, 2022 - में केंद्र ने उच्च न्यायालय को बताया कि वह वैवाहिक बलात्कार के अपराधीकरण की मांग वाली याचिकाओं पर अपना रैवेया बदलत्ते

हुए "फिर से विचार" कर रहा था। सरकार ने यह भी कहा कि उसने सभी राज्यों और विभिन्न हितधारकों का परामर्श लेना शुरू कर दिया है क्योंकि परामर्श के बिना इस मुद्दे पर कोई ठोस कदम नहीं लिया जा सकता है।

फरवरी 2022 - में दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया और केंद्र से इस मुद्दे पर कोई मजबूत कदम उठाने के लिए कहा।

11 मई, 2022 - दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक विभाजित फैसला सुनाया जिसे यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुँच गया।

हमारे देश की 75 % महिलाओ को पता ही नहीं होता कि मैरिटल रेप होता क्या है? और ऐसे महिलाएं देश के हर राज्य में है। यह महिलाएं आज़ादी के समय की नहीं है, बल्कि इसी आत्मनिर्भर भारत की नागरिक है। घर की दादी-नानी तो हँसते हुए कहती है कि तीन बच्चो के बाद हमने अपने पति की शक्ल देखी थीं। उनके समय में पर्दा प्रथा और बिजली का पर्याप्त न होना इन कमियों को वह ठहाके मार के सुनाती है। मगर उनकी हँसी में वह शोषित होने का दर्द भी दिख जाता है, जिसे वो अपने पल्लू से छिपाने की कोशिश करती है।

सरकार का कहना गलत नहीं है, "कुछ नारी शक्ति इसका दुरुपयोग भी कर सकती है। मगर कोई न कोई रास्ता निकालते हुए हमें निर्दोष और शोषित औरतो की अस्मिता की रक्षा करनी होगी। कानून बनना चाहिए। मगर कुछ ऐसा पेच भी डालना होगा, जिससे सभी का न्याय व्यवस्था पर विश्वास बना रहे। शादी को "न्यू लाइफ' "सेटल लाइफ" जैसे शब्दों से नवाज़ा जाता है। पर यही बंधन अगर हमें सुरक्षा न दे सके तो यहीं लाइफ "हेल लाइफ " बन जायेगी। पंडिता रमाबाई ने एक बार कांग्रेस अधिवेशन में कहा था "आप लोग देश की आज़ादी की बात करते हो, मगर आपने अपने घर की औरतों से आज़ादी से जीने तक का हक़ छीन रखा है। इसलिए आप पहले अपने घर से शुरुवात करिये, फ़िर देश की स्वतंत्रता की बात करें।" 75साल पहले दिया गया रमाबाईजी का व्यक्तव्य अब भी कितनी सटीक है। जीवन संगिनी के साथ संग करने के लिए उसकी मर्ज़ी पूछी जानी चाहिए। जिससे घर की बात कोर्ट रूम तक न पहुँचे और आप एक सुखी और स्वस्थ जीवन के अगोचर बने। पर अफ़सोस हर घर में यह नहीं हो रहा। तभी इस मैरिटल रेप पर कानून बनाने की आवश्यकता है। देश में अब तक कई ऐतिहासिक फैसले हो चुके हैं। आज एक और कानूनी क्रांति लाने की ज़रूरत है। फिलहाल हालात तो यही बताते है कि लड़ाई अब भी जारी है---

नारी तू शक्ति है, कर्मठ है, न है बेचारी
इसलिए लड़ाई अब भी है जारी"
हाँ, अब भी है जारी…

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