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डायरी वाला किराये का मकान छोड़कर
पत्रिका रूपी घर तलाशती मेरी कविता
पहुँच तो जाती हैं, संपादक की टेबल पर
बिना पढ़े, बिना कोई दृष्टि डाले
स्तरहीन बताकर टेबल से
रद्दी की टोकरी
का सफर तय करती हैं मेरी कविता
आज चारों तरफ भ्रष्टाचार का बोलबाला है
छपती हैं उसी की रचना
जो संपादक का भाई या साला हैं
यह कलयुग हैं, यहाँ कोई न धर्मयुद्ध न कर्मयुद्ध
नीतिविहीन दुर्योधन नहीं, धर्मात्मा यु्धिष्ठर नहीं
फिर क्यों प्रकाशक के भाई-भतीजो से
हार जाती हैं मेरी कविता
हो सकता हैं मेरी कविता में
‘बच्चन’ जैसा रस नहीं
‘निराला’ जैसा मर्म नहीं,
‘महादेवी’ जैसी शब्दों पर पकड़ नहीं,
‘प्रसाद’ जैसा सोन्दर्य नहीं,
‘पंत’ जैसी परिपक़्वता नहीं
‘दुष्यंत’ जैसी हृदय में चिंगारी नहीं
पर पता नहीं मुझे क्यों आभास है कि
नयें साहित्यकरों की परिपाटी पर
खरी उतरती हैं मेरी कविता
भावों को क्या कभी कोई समझ पायेगा?
मेरी कविता पढ़कर कभी कोई मुस्कुराएगा?
कोई है, जिसने पाषाण हृदय नहीं पाया हैं
क्या मेरे शब्द किसी से स्नेह के बंधन को बांध सकेंगे?
या हमेशा तिरस्कृत होती रहेंगी
मेरी कविता?
कोई कहता है लिखना छोड़ दो
कोई कहता है देखकर लिख
कोई कहता है तुकबंदी लगाओ
कोई कहता है मुक्तक लिखो
कोई कलम से अपना दिल चीर दो
कोई कहता है लफ्जों को
अपने भावों का नीर दो
फिर क्या पता कभी किसी को
पसंद आ जाए तुम्हारी कविता
यह भी विंडबना है
कि कलम से पकड़कर भी एक युद्ध करना है
किसी ने कहा था, जहाँ न पहुँचे रवि
वहाँ जायेगा कवि
मगर शायद यह साहित्य का यह
आसमान मेरा है ही नहीं
एक कटी पतंग की तरह
ज़मीन के कोने पर गिरे
यही सोचती रहती मेरी कविता
कब तक यह कलयुग की मानसिकता से टकराएगी
आख़िर कब तक यूँ वापिस लौटाई जाएँगी?
मोटे चश्मा पहन अनुभवी बने संपादको को
कब तक यह कम उम्र की नज़र आएँगी?
इस सवाल का जवाब ढूंढ़ते-ढूंढ़ते
हर गुज़रते पल के साथ साथ
बूढ़ी हो रही हैं
मेरी कविता
गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है
कर्म तुम्हारे बस में है
पर फल नहीं
कोशिश तो करनी चाहिए
भले ही समस्या मिले
पर कोई हल नहीं
इसी मनोबल के साथ
ख़ुद को प्रेरित करती
मेरी कविता!!!!!
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