शिव का न आदि है न अंत है,
क्योंकि शिव तो अनंत हैं।
शिव ही लय और प्रलय हैं,
शिव ही अमृत और गरल हैं।
शिव ही कला और काल हैं,
शिव ही योग और नटराज हैं।
लेकिन शिव पार्वती की भक्ति हैं,
और पार्वती शिव की शक्ति हैं।
अर्धनारीश्वर रूप संकल्प और साधना का समागम है,
और महाशिवरात्रि इसी का तो उद्गम है।
अगर शिव नटराज तो पार्वती नृत्य हैं,
और शिव कला तो पार्वती कृत्य हैं।
अगर शिव तांडव तो पार्वती ज्वाला हैं,
और शिव अन्न तो पार्वती निवाला हैं।
अगर शिव तपस्या तो पार्वती एकाग्रता हैं,
और शिव अनंत तो पार्वती पूर्णता हैं।
अगर महेश वैराग्य तो उमा अनुराग हैं,
और महेश संगीत तो उमा राग हैं।
ब्रह्मांड शिव तो पार्वती प्रकृति हैं,
और प्राण शिव तो पार्वती प्रवृत्ति हैं।
महाकाली के बिना महाकाल कहाॅं,
जैसे तेज के बिना सुर्य विकराल कहाॅं।
गिरिजा और गिरिराज शेष और अशेष हैं,
वो एक दुसरे का प्रशेष और भेष हैं।
जैसे पानी तरलता के बिना उपयुक्त नहीं,
वैसे ही शंकर गिरिजा के बिना प्रयुक्त नहीं।
जैसे महादेव अपूर्ण हैं गंगा और चंद्रमा के बिना,
वैसे ही काशी विश्वनाथ अपूर्ण हैं अन्नपूर्णा के बिना।
समुद्र मंथन से निकले गरल की है यह कहानी,
जब शंकर के डमरू से जागी वीर भवानी।
नीलकंठ बन धारण कर लिया हलाहल,
जब त्याग का परिचय मिला निश्चल।
महाकाल बन संहार करते हैं विकृति का,
पशुपति बन सृजन करते हैं प्रकृति का।
होगी नहीं अगर भवानी की तीव्रता ,
होगी अधूरी शंकर का त्याग और उदारता।
महाशिवरात्रि में आशुतोष -आर्या द्वैत से अद्वैत हो जाते हैं,
जब एक और एक दो नहीं एक हो जाते हैं।
उन्हीं एक से सब प्राण पाते हैं,
फिर लौट उन्हीं में आते हैं।
पर जाती उनकी दृष्टि जिधर,
हंसने लगती है सृष्टि उधर।
प्रकृति और हमारी समानता का बोध करवाती है यह रात्रि,
जिसे कहा जाता है महाशिवरात्रि।