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आजकल हम देख सकते हैं हमारे आसपास का वातावरण बहुत ही व्यवसायिकता की ऒर होती जा रही है, और हो ही क्यूँ न भला हम अक्सर सुनते रहते हैं अपने समाज में 'व्यवसायी रहो' - 'व्यवसायी रहो' ये अच्छे गुणों में जो गिने जाते हैं| परंतु प्रश्न अब ये आता है क्या ये अच्छी आदतें हमारे पढ़ें- लिखे चिकित्सक, इंजीनियर व उच्च पदों पर रहने वाले लोगों को भी संवेगात्मक रुप से निरक्षर कर रहे हैं। क्या ये किसी को दिखायी नहीं दे रहा है ? या हर कोई एक-दूसरे को बस एक दिखावे में भाग रहा है। उसके नतीजे पर यदि हम गौर करें तो हमें कुछ चित्र स्पष्ट हो और जिसे हम तनाव और अवसाद का नाम दे बैठे हैं , जिसे हम मानों दोषी-सा मान रहे हैं।
क्या कभी इस पर हमने गौर किया कि, आखिरकार इसकी संख्या अचानक से क्यूँ बढ़ रही है ? नहीं , हम तो बस इलाज करते जा रहे हैं । हर किसी को इससे सिर्फ मुक्ति चाहिये। हर कोई मानों दौड़ - सा लगा रहा हो और यदि समाधान की चर्चा हो तो उस पर मौन बैठे हैं। मानों शर्म रुपी हार डंक मारने को बैठी हो।
भावनात्मक निरक्षरता से तात्पर्य हम ये कह सकते हैं कि, हम इसमें स्वयं की भावनाओं व संवेगों को समझने में अयोग्य हो जाते हैं, जिससे हम दूसरों के संवेगों को भी नहीं समझ पाते हैं। एक तरह से हम ये कह सकते हैं कि ये संवेगों व भावनाओं से अलगाव हैं। यह केवल हमारे भावनाओं को स्पष्ट करने में ही नहीं बल्कि हमारी क्रिया-प्रतिक्रिया करने के दायरे को भी सीमित कर देती है।
भावनात्मक निरक्षरता के कारण- दुःख, क्रोध व निराशा जैसे संवेगनाओं से लड़ने के लिये हमारे पास मनोसामाजिक संसाधन व संवेगात्मक तकनीकी का अभाव होने के वजह से आज मानसिक रोगों की संख्या दिनों - दिन बढ़ती जा रही है और अगर दूसरी ओर यदि नजर डालें तो आजकल एक वाक्य हमारे सामने उभर कर आया है कि ''मस्तिष्क के पास दिल'' , मानो इसका अकाल -सा पड़ रहा हो ओर जिसको अंतत: हम कह सकते हैं कि या जिसकी वजह से ढेर सारी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा। यदि हम भावनात्मक निरक्षरता के वजहों पर नजर डालें तो वो हमें कई रुपों में दिखाई देती हैं-
कैसे पहचाने कि कोई व्यक्ति भावनात्मक निरक्षर है ?
इसको निम्न रुपों में समझा जा सकता है –
भावनात्मक निरक्षरता का हमारे जीवन पर प्रभाव –
इन प्रभावों को दो तरह से देखा जा सकता है-
आंतरिक रुप से – कोई भी समस्या होती है तो सबसे पहले उसका असर हमारे स्वयं के व्यकित्त्व पर होता है यदि हम ध्यान से देखे तो ऐसी निरक्षरता कहीं न कहीं हमारे स्वयं के साथ – साथ परिवार पर भी दिखाई देने लगती है, जब हम खुद ही मानसिक रुप से ग्रसित रहेंगें तो परिवार के लिये क्या प्रेरक बनेंगें ? और आने वाली पीढ़ियों को कैसे शिक्षित करेगें ? और फिर एक ऐसी स्थिति आती है कि हम खुद को अवसादों व चिंताओं से ग्रसित हुआ पाते हैं और मनोचिकित्सालाओं का चक्कर लगाते हुए दिखते हैं। ऐसे में हम कितनी भी डिग्रियाँ क्यूँ न पा लें परन्तु हम निरक्षर ही कहलायेंगें ।
बाह्य रुप से- भावनात्मक निरक्षरता के प्रभावों को हम अपने आस- पास के समाजों पर भी देख सकते हैं , जब एक संवेगात्मक रुप से अशिक्षित व्यक्ति समाज में अपने योगदान देना चाहेगा या समाज कल्याण की सोच रखता हो तो भी वह समस्याओं का समाधान के जगह बहुत सारी समस्याओं का उत्पादन करने वाला हो जायेगा क्योंकि उसे संवेदनाओं को नियन्त्रित करने ही नहीं आयेगा । ऐसे में ऐसी समस्यायें उत्पन्न होगी जिसे हम – जातिवाद, काला- गोरा, दमन आदि नामों से सुन सकेंगें ।
समाधान- भावनात्मक निरक्षरता एक तरह से हम कह सकते हैं कि एक ऐसी शिक्षा जिसे हम अपनी – अपनी संवेदनाओं पे नियत्रंण खोने की वजह से नहीं प्राप्त कर पाते और हमें इस क्षेत्र में निरक्षर घोषित कर दिया जाता है। आज के परिवेश में इस शिक्षा में निपुण होना बहुत ही जरुरी है, अन्यथा आप स्वयं के साथ – साथ परिवार व समाज से भी गुमराह हो जायेंगें ।
उपसंहार- जीवन मौसम की तरह है, ये हर समय बदलती रहती है , हमें हर मौसम का आनन्द लेना चाहिये। तभी तो सर्दी हो, गर्मी हो या बरसात हम सबका आनन्द उठा पायेंगें। अन्यथा हम ’’अशिक्षित जीव ‘’ कहलायेंगें। उसी तरह से हम अपने संवेदनाओं पर नियत्रंण तभी प्राप्त कर सकते हैं जब संवेगों को खुले आसमान में अनुभव करने देगें, इसलिये आज से ही ऐसी सोच रखना चाहिये कि हमारे ‘’मस्तिष्क में भी दिल ‘’ होगा।
संदर्भ सूची-