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दरींदो की दुनिया है, औरतों को नोच खाते हैं,
मगर हम तो सिर्फ़ अफ़सोस जताते हैं।

क्या हुआ, कहाँ हुआ! इन सब की ओर दौड़ पड़ती है नज़रे,
चटपटे मसालों की तरह परोसी जाती हैं खबरे,
रस ले लेकर पढ़ते है अखबार, और ये सब होता रहता है बार-बार,
जिस पर बीतती है सब उसके हमदर्द बन जाते हैं,
मगर फिर भी सिर्फ अफ़सोस जताते हैं।

पत्थर की मूरत को रेश्मी कपड़े पहनाते हैं,
बाहर अपनी हवस मिटाते हैं,
देवी के आगे  तो हज़ारों दिए जलते हैं ,
और बाहर इन्हें ज़िंदा जलाते हैं,
और हम सिर्फ अफ़सोस जताते हैं।

आखिर क्यों इतने बेबस है हम, क्यों लड़ नहीं सकते,
हर बात पे मरने को तैयार है दुनिया, मगर इसपे कुछ कर नहीं सकते,
मुस्कुराते हुए कई आँगन की तितली ऐसे ही उड़ जाएगी,
मगर ना जाने हममें हिम्मत कब आएगी,
दरिंदे इसी तरह अपना रंग दिखाएंगे,
और हम तो सिर्फ़ अफ़सोस ही जताएँगे।

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