Photo by Jonas Allert on Unsplash

भटकता रहता है अविरल छोर क्षितिज या गगन
ये चंचल चित्त घुमक्कड़ मन...

स्वतः बैर पर अड़ जाता है लेकर कोई अनहाक जद,
मनोभूमि में छिड़ जाता है खुद के विरुद्ध एक द्वंद,
फिर यथा व्यथा, भय-भास पर करता अति गहन चिंतन
ये चंचल चित्त घुमक्कड़ मन...

पहुंच जाता है शून्य में क्षणिक दूर कहीं,
कहीं खुशी की लहर का एहसास कराता है यूं ही,
कभी अलभ्य को शाक्य करता एक अटल प्रण
ये चंचल चित्त घुमक्कड़ मन...

बिना किसी धुरी के भ्रमण विचरण,
दिशाहीन होकर भी विहार व्रजन चहुँओर,
भटकता रहता है अविरल छोर क्षितिज या गगन
ये चंचल चित्त घुमक्कड़ मन...

.    .    .

Discus