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मन के भीतर अपने ही भरा पड़ा है कितना कुछ ...
कहीं प्यार तो कहीं ईर्ष्या कभी कहीं तो बातें तुच्छ...
भभक रही है मन के भीतर प्रतिशोध की प्रबल ज्वाला...
मुख पर बनते है सभी शुभचिंतक या हित चाहने वाला...
सुंदर मुखड़ा साज सजाकर रखे कितने चेहरे....
काला दिल और मैला मन हर पल छल के पहरे...
सूझबूझ और दुनियादारी के अपने ही अलग मायने हैं....
राह के ठोकर और अपनों के धोखे ही तो असल आईने हैं.....
कभी कोई साथी आगे बढ़ता पानी और बताशे है...
पल में धूप और पल में छाया कैसे खेल तमाशे है....
कोई उड़ता बेखौफ गगन में, कोई कैद है पिजड़े में
कहीं हैं पैरों में छाले.....
गजब की दुनिया बनाने वाले ! तेरे खेल भी हैं खूब निराले...

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