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आज काफी अरसे बाद वो याद आने लगी है। हाँ! वही जिसके दीवाने हर गली मौहल्ले में घुमा करते थे, और मैं उन दीवानों की कतर में खड़ा आखरी मुनासिब। कह सकते हो, मैं आखरी भी नहीं था, शायद किसी कतार में खड़ा ही नहीं था। मैं तो बस उसके गली से गुजरता भर था। बस इतना ही काफी था मेरे लिए। किंतु उसके चाहने वालो की तो बात ही अलग थी। वो शायर लोगों की भाषा में कहते है ना –
“सुना है तेरे गली में तेरे नाम की गूंज रहती है, जैसे काशी के घट पर भक्ति की चौपाल रहती है।”
जिंदगी नदी के बहाव जैसी है और वो मेरे नदी के किनारे बनी दशाश्वमेध घाट-सी थी। जहाँ हर साँझ गंगा की आराधना होती है, जहाँ भक्ति की गुहार होती है। मुझे आज भी याद है वो इत्तेफाक जब हम पहली दफा मिले थे। देश की राजधानी कोहरे में लिपटी पड़ी थी। तापमान औसत से ज्यादा नीचे गिर गया था। इसके बावजूद दिल्ली की सड़को पर लोगों का आवागमन शुरू हो गया था। फूटपाथों पर चाय-नाश्तें की टपरिया खुल चुकी थी। मैं अपने पापा के साथ हर रोज की तरह सायकल से अखबारों का बंडल लेने के लिए मीनार हाउस पहुँचा। वहाँ का माहौल रद्दी बेचने वाले की दूकान से कम नहीं था। पूरा कमरा हिंदी, अंग्रेजी, मराठी, तमिल, तेलगु, उर्दू अखबारों से भरा पड़ा था। पापा ने हिंदी अखबारों का बंडल उठाकर मेरे हाथों में थमा दिया। और हर रोज की तरह मैं बंडल अपने सायकल पर लटकाकर निकलने लगा कि तभी पीछे से किसी ने आवाज लगाई, “राजीव…राजीव।” मैंने पीछे पलटकर देखा। सफेद टी-शर्ट, नीले पैंट पहने मेरा दोस्त विपिन आ रहा था।
उसने पास आते ही एक साँस में कहा, “राजीव, तू सरोजिनी नगर जाने वाला है ना?” मैंने ‘हाँ!” में सर हिला दिया। उसने कहा, “थर्ड क्रॉस रोड, ३४-लीला हाउस में ये एक अखबार दे देना।”
मेरे दिमाग में खयाल आया ‘अबे यार! अब ये भी करना होंगा!’ मगर मैं चाहकर भी उसे मना नहीं कर सकता था। कई बार वो मेरे अखबार दूसरी गलियोँ में शौक से दे देता था। मैंने बेमन से कहा, “ठीक है।” और उसके हाथ से अंग्रेजी अखबार लेकर हिंदी अखबारों के बंडल में रख दिया। उसने एक फीकी-सी मुस्कान दी और कहा, “शाम को आदर्श चाय टपरी पर मिलते है।” मैंने फिर ‘हाँ!’ में सिर हिला दिया और वहाँ से निकल पड़ा।
सरोजिनी नगर का मार्किट, साउथ दिल्ली का सबसे सस्ता और लोगों का सबसे पसंदीदा मार्केट है। जहाँ बच्चों से लेकर बूढों तक हर चीज सबसे सस्ते टिकाऊ दाम में मिल जाती है। बस जेब में पैसे और बिताने के लिए समय चाहिए। मैं सरोजिनी नगर के चप्पे-चप्पे से वाकिफ था। और इस लीला हाउस के बारे में मैंने पहले भी सुना था, बस जिसके लिए सुना था उसे कभी देखा नहीं था। और ये कसर इतने जल्दी पूरी होने वाली थी, इस बात पर यकीन नहीं था।
करीब आधे घंटे की जिद्दोजहद के बाद मैं लीला हाउस के सामने था। सफेद रंग का बड़ा-सा खूबसूरत बंगला था। जिसके सामने लगा काले रंग का गेट उसकी पहरेदारी कर रहा था। गेट के एक तरफ सुनहरे रंग में लीला हाउस लिखा हुआ था। लग रहा था, जैसे बंगले की खूबसूरती ने मुझे मंत्र-मुग्ध कर दिया हो। मैं गेट के पास गया और गेट पर लटके लेटर बॉक्स में पेपर डाल दिया। मैं वहाँ से जाने के लिए पलटने को हुआ ही था कि मेरे सामने गेट खुला और मेरे हमउम्र की एक लड़की काले रंग की लॉन्ग ड्रेस पहने अपनी स्कूटी लेकर बाहर निकली। मैं अपनी जगह पर जस-का-तस बना रहा। उसकी काली घनी जुल्फें उसके कानों के पीछे फसी हुई थी। और बालों के बीच फसा उसका झुमका आजाद होने की कोशिश में था। मैं उसकी काली गहरी आँखों में जैसे खोने लगा था। उसके पतले ओठ जो कोई बात मंत्र की तरह बड़बड़ा रहे थे। और उसके माथे पर उभरती उसकी शिकन साफ झलक रही थी, लग रहा था जैसे किसी बात से चिंतित हो। एक पल के लिए महसूस हुआ जैसे मेरे सामने साक्षात माधुरी दीक्षित बॉलीवुड की फिल्मों से निकलकर सामने आ गयी हो।
उसने स्कूटी करीने से बहार निकली। मैं अब भी वहीँ था, जैसे वक्त ने कुछ पल के लिए मुझसे रुक्सत ले रखी हो। उसने कनखियों से मेरी तरफ एक नजर डाली और बिना किसी प्रतिक्रिया के वहाँ से निकल गई। मैं उसे बस जाते देखता रहा। अब पता चला, आखिर इसकी गली क्यों इसके नाम से गूंजती है?
उस दिन मैं बस खवाबों-खयालों में डेरा डाले बैठा रहा। मेरे कानों में एक आवाज गूंजने लगी ‘आज की ताजा खबर... राजीव आरेकर को लीला हाउस वाली लड़की से चाहत हो गई है।’ मेरे सायकल के हिंदी अखबार बंडल में एक नया अंग्रेजी बंडल शामिल हो गया था। अब रोज मैं विपिन से पेपर लेना नहीं भूलता था। अगर वो लाकर भी ना दे, तब भी मैं खुद उसके पास जाकर ले आता था। विपिन को मेरी हरकतों पर शक होने लगा था। और आखिर में उसने एक शाम आदर्श चाय टपरी पर उसने पूछ लिया, “राजीव, सरोजिनी नगर में कुछ हुआ है क्या?”
मैंने अनजान बनते हुए कहा, “नहीं तो, कुछ भी तो नहीं हुआ है!”
उसने फिर पूछा, “चल अब बता भी दे। वरना साले तेरा पेट दर्द करेंगा।” शायद वो मेरी हड़बड़ाहट को भाँप गया था। पहली-पहली बार चाहत हुई थी। मैं अनजान था इन चौराहों से कि कैसे दुनिया से इसे छुपाया जाता है? बस खुली किताब की तरह मेरे हरकतों में साफ झलकने लगा था।
मैंने कहा, “वो बात ये है कि...” और आखिरकार उसे इतने दिनों का राज बता ही दिया। उसने मेरी पहले बात सुनी और जोर-जोर से हँसने लगा। उसने कहा, “पता भी है वो कौन है? उसके पीछे सारा जमाना पागल है। तुझे तो उसका नाम भी नहीं पता होंगा?”
मैंने कहा, “पता तो है मगर याद नहीं आ रहा है।”
उसने कहा, “पारुल नाम है उसका। अब उसके बारे में सोचना छोड़ और ग्यारह्वी के लिए एंट्रेंस एग्जाम की तैयारी करना शुरू कर।” वो आगे बातें कहता गया और मैं बस ‘पारुल’ में खो गया।
उस दिन के बाद मैं हर रोज कुछ देर के लिए उसके घर के सामने ठहर जाता की कहीं वो मुझे दिख जाए, मगर ऐसा हुआ नहीं। लीला हाउस में अंदर जाने की मेरी हिम्मत नहीं थी और मैं उसे बीच सड़क में रोककर बात भी कर लूँ इतना आत्मविश्वास भी नहीं था। दिन हफ्तों में गुजर गए। मैंने कुछ दिन बाद हार मान ली और एंट्रेंस परीक्षा का नीकाल आते ही मैंने अखबार बाँटने का काम भी छोड़ दिया। कुछ चाहतों का अंत बस यूँ ही हो जाता है। ना उम्मीद टूटने आवाज होती है, ना अमर गाथाएँ लिखी जाती हैं।
पापा अब भी अखबार बाँटने के लिए सुबह चले जाते है। मैं कभी-कभार अकेले में बैठा सोचता हूँ, अब कोई मेरे बजाय उसके घर अखबार देने जाता होंगा। शायद उसे भी उसकी चाहत हो गई होंगी, शायद वो भी एक उम्मीद को जिंदा रखने की कोशिश करता होंगा। और कोई उसका दोस्त उसकी इस नादानी पर हँसता होंगा।
आज वो फिर मुझे सरोजिनी मार्किट की दुकानों में खरीदी करते दिख गई। आज उसने लाल रंग की टॉप और नीले रंग की जीन्स पहन रखी थी। मैं आज भी हिम्मत नहीं कर पाया। वो फिर मेरे सामने से चली गई और मैं बस देखता रह गया। अब जब बैठा हूँ अपने अकेलेपन में तो मुझे मेरा अतित मेरे सामने फिर आईने की तरह साफ नजर आ रहा था। जो गहरे अंधेरे से कम नहीं था। बस एक बहाव था, जो बह गया...। एक याद थी मेरी उसकी जो मेरे साथ रह गई।