Image by Jo-B from Pixabay 

मेरे एक इंटरव्यू के दौरान मेरे सामने बैठे पत्रकार ने पुछा, “गौरव कुमारजी, आज आप देश के बड़े चिकित्सकों में जाने जाते है, आपकी सफ़लत की वजह क्या है? ” उसका ये सवाल मुझे मेरे अतीत के उस किस्से में ले गया जो हमेशा से मुझमें कहीं दफ्न था। मैने एक गहरी सॉस भरते हुए कहा -

हर कामयाब जिंदगी के पीछे एक अनकही जिंदगी शामिल होती है। आज से दस साल पहले, एक दिन मेरा और माधवी का झगडा हो गया था – माधवी मेरी गर्लफ्रेंड थी। उसके दो-तीन दिन बाद ही मुझे माधवी का एक संदेश मिला, ‘मैं अब इस रिश्ते को नहीं निभा सकती। मैं तुमसे सारे रिश्ते तोडती हूँ।’ उसपर कोई कारण नहीं लिखा हुआ था। क्यों? किस लिए? उसके बाद मैंने उससे मिलने की कई कोशिशे की मगर वो कभी नहीं मिली। और एक दिन मुझे मेरे दोस्त से पता चला, माधवी किसी और से प्यार करती है। ये सुनते ही, मेरा दिल टूट गया था। जिस लड़की से इतना प्यार किया, वो किसी और को चाहने लगी थी।

उसकी यादे मुझे धीरे-धीरे डिप्रेशन का शिकार करने लगी थी। मैं गुमसुम-सा घर के एक कोने में कैद रहने लगा था। मेरी हालत दिन-ब-दिन कमज़ोर होने थी। मुझे लोगो से मिलने पर डर लगने लगता; साथ ही सामाजिक जगहों पर जाना भी बंद कर दिया था। मेरे दिमाग में एक मानसिक बीमार पनपने लगी थी, जिसे ‘एनोक्लोफोबिया’ कहते है – भीड़ का डर। दोस्तों से नज़रे मिलाने की हिम्मत नहीं थी मुझमें।

मेरे इस हालत से घर के लोग काफ़ी परेशान होने लगे थे। घरवालो ने कई बार समझाया, यहाँ तक की मुझे मनोविज्ञानी के पास भी लेकर गए, मगर मेरे दिमाग पर किसी बात का कोई असर ही नहीं हुआ। माँ का २३ साल का लाडला बेकार हालत में पड़ा था। मुझे खुद को सँभालने के लिए गलत चीजों का सहारा लेना पड गया था।

इसी दौरान एक दिन मैं नशे की हालत में घर पंहुचा। माँ ज़मीन पर लेटी पड़ी हुई थी। मैं माँ के पास दौड़कर पंहुचा। वो बेहोश थी। मैं जैसे-तैसे करके माँ को अस्पताल ले गया। पिताजी को अस्पताल पहुंचते ही फ़ोन कर दिया। वहां कई टेस्ट्स करने के बाद डॉक्टर ने बताया की, माँ को ब्लड-कैंसर हुआ है। यह सुनते ही लगा जैसे ज़मीन पैरो के निचे से खिसक गई हो। सारी दुनिया एक सन्नाटे में तकदिल हो चुकी थी। साथ-ही कैंसर अभी दूसरे स्टेज पर पहॅुच चुका है। और इस बीमारी का कोई सटीक इलाज उपलब्ध नहीं है। पिताजी गहरे यह सुनकर गहरे सदमे में थे। वो भी हिम्मत बटोर रहे थे। कुछ दिन अस्पताल में इलाज करने के बाद माँ को घर ले आये।

घर की आर्थिक तंगी के कारण हम माँ का इलाज घर से करने लगे। हम जितना हो सके उतनी कोशिश कर रहे थे, मगर हम सब कही-ना-कही नाकाम थे। माँ भी यह जानती थी, सब बेकार है। दिन-ब-दिन माँ की  तकलीफे बढ़ते जा रही थी। पिताजी की सारी जमापूंजी माँ के इलाज में ख़त्म हो गयी थी। घर पर कर्ज़ का बोझ बढ़ने लगा था। पिताजी माँ को देखकर मुस्कुराते; मगर अकेले में रोते थे। पिता के आँसू पोछने में मैं भी रो पड़ता था।  पहले माधवी का जाना और अब माँ की बीमारी, मैं अन्दर से बिखर चुका था।

और जिंदगी में वो भयानक दिन भी आया। माँ की आखरी साँसे चल रही थी। वो बिस्तर पर पड़ी थी। पिताजी लाचार हालत में माँ के बाजू में बैठे थे, साथ में कुछ रिश्तेदार भी थे। माँ ने मुझे अपने पास बुलाया और मेरे बालो को सहलाते हुए धीमी आवाज में कहा, ‘गौरव तू मेरा राजा बेटा है ना। तू कभी किसी के छोड़ जाने पर कभी नहीं रोयेंगा। अपना और अपने पिता का ख्याल रखना। और मुझसे एक वादा कर, कभी कोई माँ मेरी तरह अपने बच्चे से जुदा नहीं होनी चाहिए।” मेरे मुँह में शब्द ही नहीं थे। मैंने सिर हिलाते हुए ‘हाँ!’ कहा था। मेरी आँखों से आँसू बह रहे थे।

उस दिन के बाद मैंने कभी मुड़कर कभी नहीं देखा। कभी किसी लड़की के लिए नहीं रोया। और आज भी मैं अपने माँ-पिताजी से बहुत प्यार करता हूँ। यह कहते हुए, मेरे आँखे नम हो गई। मैंने आँसू पोछते हुए दोहराया, “सफ़लता के लिए एक वजह ही काफ़ी है।” 

.   .   .

Discus