ज़िंदगी इत्तिफ़ाक़ हैं या इत्तिफ़ाक़ो से भरी किस्मतों को ही ज़िंदगी कहते हैं? नहीं जानती, शायद जानना भी नहीं चाहती...

सुबह-सुबह की सूरज की रोशनी संग मैंने एक बात ठान ली थी। कुछ भी हो जाए, आज माँ से बात करके रहूँगी। ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी करने के बाद पोस्ट-ग्रेजुएशन के लिए मुझे भोपाल जाना था। माँ से जब गुज़ारिश की तो वो मुझपर भड़क पड़ी और चिल्लाते हुए कहा, “काव्या बहुत हो गयी तुम्हारी मनमानी। अब कोई अच्छा लड़का देख तुम्हारे हाथ पीले करने है, समझी।” सुबह से ही माँ मुझपर नाराज़ थी। वो मेरी एक सुनने को राज़ी ना थी।

पापा हॉल में अख़बार पढ़ रहे थे, तभी माँ ने पापा को टोकते हुए कहा, “इन्हें देखो, दिनभर घर में बस अख़बार में सर घुसाएँ बैठे रहते है। इन्हें तो इसी से फुर्सत नहीं है। पड़ोस वाली चौधरी की बेटी को रिश्तेवाले देखने आये थे।"

“तुम्ही काव्या के बारे में नहीं सोचती, मुझे भी परवाह है मेरी बेटी की।", पापा ने अखबार से नज़रे हटाते हुए कहा, “मैंने कुछ लडको के बारे पता किया हैं। वो चांदनगर वाले शर्माजी है ना, उनका भतीजा है, सरकारी नौकरी में है। अच्छा भला खानदान है।”

माँ ने चहकते हुए कहा, “सुनते हो, मैं कह रही थी। आज ही शर्माजी से बात करके देख आओ।” मैं कोने में खड़ी, दोनो की बाते सुन रही थी, मगर मैं ही कहीं अनसुनी रह गयी थी.

श्याम को पापा ने बताया की, उन्होंने शर्माजी से बात कर ली है और वो लोग कल मुझे देखने आने वाले है। इसी बीच मेरी आँखों के सामने यादों के पिटारे से एक धुंधली तस्वीर नज़र आई। ये वही था जिससे मैं अनजाने में ही टकराई थी और देख उसे पहली नज़र में दिल हार बैठी थी। मगर अब क्या फायदा उसके बारे में सोचकर? ना वो शख्स दोबारा कभी मिला, ना उसकी कोई जानकारी। है तो बस एक ख्याल और एक अधूरी हसरत।

सुबह से ही माँ तैयारी में जुट गयी थी। पापा भी आज अख़बार को किनारे में रख माँ का हाथ बटा रहे थे। मुझे पहली बार लड़केवाले देखने आ रहे थे, इसलिए माँ चाहती थी की मेहमानों की ख़ातिरदारी में कोई कसर बाकी ना रह जाये। माँ ने मुझे मेहमानों के आने के एक घंटे पहले ही तैयारी करके रहने को कहा था। माँ-पापा के चेहरे पर ख़ुशी और चिंता एक साथ झलक रही थी। मैं अपने कमरे में आईने के सामने बैठी खुदको देख रही थी।

कुछ देर बाद, हॉल से मेहमानों के आने की आवाज़ आयी। पापा सबको बैठने के लिए कह रहे थे। बहार चहल-पहल बढ़ने लगी थी, साथ ही मेरे दिल में बेचैनी भी। कुछ देर बाद, बसंती चाची ने मेरे कंधो पर हाथ रखते हुए कहा, “काव्या, चलो। तुम्हे मेहमानों के लिए चाय ले जानी हैं।” मैं चाची के साथ रसोईघर में गयी। माँ ने ट्रे में चाय निकालकर रखी थी। उन्होंने मुझे मुस्कुराते हुए देखा और कहा, “ये चाय दे आओ।” और उन्होंने वो ट्रे मेरे हाथो में थमा दी। मैं धीरे-धीरे चलते हुए हाॅल में आयी। सबकी नज़रे मेरे तरफ थी और मेरी चाय की तरफ। मैं सभीको एक-एक कर चाय देने लगी, तभी मेरे सामने बैठे शख्स ने कहा, “काव्या।”

आवाज़ सुन मैं चौंक गयी, मैंने झट से नज़रे ऊपर की – वो ऋषि था। मैं खुद की आँखों पर यकीन नहीं कर पा रही थी, जिसका चेहरा मेरे आँखों में हर पल बसर करता है वो आज मेरे सामने था। एक पल के लिए उसकी वो सारी यादे वापिस लौट आई थी। मैं उसके आँखों में खुदकी तस्वीर देख रही थी और वो मुझसे नज़रे चुराने की कोशिश कर रहा था। लग रहा था, जैसे मेरे जुस्तजू की इंतहा हो गयी है। वैसे ही एक आवाज़ ने मेरा ध्यान अपने तरफ खिंचा। और मैं चाय देकर वहां से वापिस लौट आयी। बहार सब मेरे बारे में बाते कर रहे थे। कुछ देर बाद, उन्होंने मुझे बहार बुलाया और मुझसे सवाल-जवाब करने लगे – मेरा नाम, पढ़ाई, रसोई का काम, आदि। मगर ऋषि अब भी खामोश एक तरफ बैठा अपने दोस्त से बाते कर रहा था। मैं चाहती थी वो मुझसे कुछ पूछे, मगर ऐसा कुछ हुआ नहीं। सवाल-जवाब के इस सिलसिले के बाद मैं कमरे में वापस लौट आयी। कुछ देर बाद मेहमान भी वहां से चले गए। फिल्मो में लड़का-लड़की एक दूसरे से अकेले में मिलते है, मगर हक़ीक़त में ऐसा हो ज़रूरी तो नहीं।

रात में लड़केवालों के तरफ से शगुन की भेट आई थी और साथ में एक संदेश भी ‘हमें लड़की पसंद हैं।’ इस खबर से घर में उमंग का माहौल छा गया था। दिलचस्प बात ये थी की, ऋषि खुद रात में घर आया था। उसने ख़ास मेरे लिए एक सफ़ेद रंग का डिब्बा दिया था। वहीँ डब्बा अब मेरे सामने रखा था। मैं उसे लेकर उलझन में थी। हर उल्फ़त के पीछे कोई ना कोई किस्सा ज़रूर होता है। ये वही किस्सा है जो हरदम मेरे निगाहों में बसर करता है। जब हम इत्तेफ़ाक से टकराए थे।

हर सफ़र एक नया आगाज़ होता है वक़्त का; इससे कोई फर्क नहीं की वो किस्सा छोटा है या बड़ा, मायने तो उस सफ़र के होते हैं। कॉलेज की ये ट्रिप भी मेरे जिंदगी में कुछ नए बदलाव लेकर आई थी, जिनसे मैं बेगानी थी। हरिद्वार का वो सफ़र आज भी शीशे की तरह साफ़ मेरे आँखों में बसता हैं। दोस्तों के साथ नवम्बर की शुरुआत और ठंड का आग़ाज़, इससे बेहतर क्या हो सकता है? और इस सफ़र में किसी अजनबी से आप टकरा जाये, तो उसका क्या ही कहना। ऐसा ही कुछ हुआ था उस श्याम, हरिद्वार के पावन गंगा घाट पर।

दोस्तों के कहने पर मैं गंगा नदी के सीढ़ियों तक तो आ गयी थी, मगर उन सीढ़ियों से निचे उतरने की हिम्मत मुझमे नहीं थी। दरसल मुझे थैलासोफोबिया नाम की बीमारी थी, जिसमे हमें पानी की जगहो से डर लगता है। मैं दूर खड़ी अपने दोस्तों को नौके की सैर करते देख रही थी। तभी भीड़ के धक्को से बचने के लिए मैं सीढ़ियों से थोड़े निचे उतर गयी, और उसी दरमियान किसी ने मुझे जोर से धक्का दिया और मैं नदी में गिर पड़ी। एक पल में मेरी सारी खुशियाँ डर में तकदिल हो गयी। मुझे तैरना नहीं आता था। हौले-हौले पानी के डर ने मुझे अपने आप में शामिल कर लिया और मैं बेहोस हो गयी।

कुछ देर बाद मेरी आँखें खुली। मेरे सामने एक लड़का बैठा मेरे पैरो की मालिश कर रहा था – गोरा रंग, हलकी हरी आँखें, चेहरे पर दाढ़ी, बिकुल मेरी कद-काठी का। दिखने में बिलकुल सपनों के शहजादे जैसा। एक पल के लिए मैंने चारो तरफ नज़रे घुमाई तो पता चला मैं किसी अस्पताल में थी। मैंने उसे एक नज़र देखा और वो मुस्कुराते हुए मेरे करीब आया और कहा, “हेलो! काव्या, डरने की कोई बात नहीं है। मैंने तुम्हारे घर में बता दिया है तुम सुरक्षित हो। कुछ देर में तुम्हारे साथी तुम्हे लेने आ जाएँगे।” मैंने उसकी बात तो सुनी, मगर कोई जवाब नहीं दिया। उसने एक पल मेरे आँखों में देखा और वो मुस्कुराते हुए वहां से चला गया।

कुछ देर बाद, मेरे कॉलेज के सभी दोस्त अस्पताल आ गए थे, मगर वो शख्स दोबारा कहीं नज़र नहीं आया। अस्पताल के फॉर्म पर उसका नाम पढ़ा – ऋषि कुमार और रिलेशन में उसने फ्रेंड लिखा था। कुछ घंटो बाद मुझे अस्पताल से डिस्चार्ज कर दिया गया। लाखो की भीड़ में वो अनजान शख्स कहीं किसी मॅझधार की तरह बह गया था। उस नाम का कोई शख्स किसी सोशल मीडिया पर भी नहीं था। ना जाने क्यों मगर मैं पहली ही नज़र में दिल हार बैठी थी उसपर। हर लड़के में बस उसे ढूंढने की कोशिश करती रहती, मगर वो कभी ना मिला मुझे। और आज वो मेरे सामने बैठा था।

Photo by cottonbro: pexels

पापा ने बिना कोई सवाल किये वो सफ़ेद डिब्बा में हाथ में थमा दिया। उसके अंदर मेरी खोयी हुई पायल थी और मेरे लिए एक लिफ़ाफ़ा। मैं लिफ़ाफे को खोल उसे पड़ने लगी –

“काव्या, मेरा नाम साहिल है। मैं उस दिन तुमसे माफ़ी मांगना भूल गया था। दरअसल मैंने ही तुम्हे गलती से नदी में धक्का दे दिया था। और पानी के तेज़ बहाव में तुम गिर गयी थी। मैंने वक़्त रहते तुम्हे बचा लिया था, मगर किसी पुलिस केस के डर से मैंने अपना नाम ऋषि लिख दिया था। उस दिन जब तुम बेड पर सोयी थी, तब मैंने तुम्हारे पैरो की मालिश करने के लिए तुम्हारी पायल पैरो से निकल ली थी। सोचा था, बाद में माफ़ी मंगाते वक़्त दे दूंगा। मैं तुम्हारी सलामती की दुआ मांगने के लिए मंदिर गया था, और जब तक वापिस आया, तुम अस्पताल से जा चुकी थी। इसे इत्तेफ़ाक कहू यह किस्मत नहीं जानता? तुम्हे दो साल बाद आज देखा। वैसे मैं तुमसे एक बात कहना था, मैं तुमसे उस दिन से ही मोहब्बत करता हू, जिस दिन तुम्हे पहली बार देखा था। मगर तुम्हारे दिल में क्या है, मैं नहीं जानता। क्या तुम मुझसे शादी करोंगी? जवाब का इंतज़ार रहेंगा। तुम्हारा ऋषि।”

चिट्ठी पढ़कर ओठों पर मुस्कान लौट आई। मैं इसका जवाब जानती थी, मगर उसने मुझे जो दो साल तक बेचैन करके रखा, उसका हिसाब तो तुम्हे देना होगा ना, ऋषि कुमार। अब मेरी बारी है...

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