भारतीय संविधान का एक मुख्य अंग मौलिक अधिकारों की उद्घोषणा है I भारतीय संविधान के भाग ३ मे मौलिक अधिकारों का विस्तार से वर्णन किया गया है I संविधान मे मौलिक अधिकारों का जिस प्रकार वर्णन किया गया है वह विश्व के समस्त देशो से अलग और विस्तृत है क्योकि भारत एक लोकतान्त्रिक देश है और लोकतंत्र की यह विशेषता होती है कि इसमे नागरिको के मूल अधिकारों की रक्षा की जाती है ताकि कोई भी नागरिक अपने अधिकारों से वंचित ना रह पाए I इसी कारण से संविधान के भाग ३ को भारत का अधिकार पत्र ( magna carta ) कहा जाता है I इसी अधिकार पत्र के माध्यम से १२१५ मे अंग्रेजो ने सम्राट जॉन से नागरिको के मूल अधिकारों को रक्षा प्रदान की थी I यह अधिकार पत्र मूल अधिकारों से सम्बंधित प्रथम लिखित दस्तावेज है I इस दस्तावेज को मूल अधिकारों का जन्मदाता कहा जाता है I १७८९ मे फ्रांस मे जनता के मूल अधिकारों की एक पृथक प्रलेख मे घोषणा की गयी इसमे मानवीय अधिकारों की प्राकृतिक अप्रतिदेय और मनुष्य के पवित्र अधिकारों के रूप मे उल्लखित किया गया I

सर्वप्रथम अमरीका मे नागरिको के अधिकारों को पूर्ण संविधानिक स्तर प्रदान किया गया I भारतीय संविधान मे भी नागरिको के अधिकारों को प्राकृतिक और अप्रतिदेय माना गया है I “गोलकनाथ बनाम पंजाब “के मामले मे न्यायाधिपति सुब्बाराव ने इन अधिकारों को नैसर्गिक और अप्रतिदेय माना I गोलकनाथ के मामले मे अभिव्यक्त इस मत की ‘मेनका गाँधी ‘के मामले मे पुष्टि की गयी I न्यायाधिपति श्री बेग ने कहा कि मूल अधिकार ऐसे अधिकार है जो स्वयं संविधान मे समाबिष्ट है I भारतीय संविधान मे ब्रिटिश पद्धति का अनुसरण करते हुये इन्हे ‘संविधान द्वारा प्रदत अधिकारों के रूप मे ही अंगीकृत किया गया है I मूल अधिकार वे आधारभूत अधिकार है जो नागरिको के बोद्धिक, नैतिक और आध्यात्मिक विकास के लिए अत्यन्त आवश्यक ही नहीं वरन अपरिहार्य है I इन अधिकारों के अभाव मे व्यक्ति का बहुमुखी विकास सम्भव नही है I

संविधान मे इन अधिकारों के समाविष्ट किये जाने का उद्देश्य उन मूल्यों का संरक्षण करना है जो एक स्वतंत्र समाज के लिए अपरिहार्ये है I जहां जनता ने राज्य सरकारों को अपने उपर शासन करने की शक्ति प्रदान की वहीं उसने कतिपय अधिकारों को उसकी शक्ति से परे रखा ताकि उनका उल्लघन किसी भी दशा मे न किया जा सके I विधान मंडल मे बहुमत प्राप्त होने पर भी सरकार उन मूल अधिकारों का अतिक्रमण नहीं कर सकती है I संविधान के मूल अधिकारों की विधिवत घोषणा सरकार को इस बात की चेतावनी देती है कि इन अधिकारों का आदर करना उनका परम कर्तव्य है I इन अधिकारों को संविधान मे समाबिष्ट करके सरकार की शक्ति को एक निश्चित दिशा मे सीमित करना है, जिससे सरकार नागरिको की स्वतंत्रताओ के विरुद्ध अपनी शक्ति का प्रयोग न कर सके I

Jawaharlal Nehru signing the Constitution of India 
Source: wikipedia.org

मेनका गाँधी बनाम भारत संघ के मामले मे मूल अधिकारों की प्रकृति एवं महत्त्व के विषय मे न्यायाधिपति श्री भगवती ने यह कहा – “ये मूल अधिकार इस देश की जनता द्वारा वैदिक काल से संजोये गए आधारभूत मूल्यों का प्रतिनिधित्व करते है और वे व्यक्ति की गरिमा का संरक्षण करने और एसी दशाये बनाने के लिए परिकल्पित है जिनमे हर एक मानव अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास कर सके I वे ‘मानव अधिकारों ‘के आधारभूत ढ़ाचे के आधार पर गारंटी का एक ताना बना बुनते है और व्यक्तिगत स्वाधीनता पर इसके विभिन्न आयामों मे अतिक्रमण न करने की राज्य पर नकारात्मक बाध्यता अधिरोपित करते है I

संसदीय शासन प्रणाली मे नागरिको की स्वतंत्रताओ के लिए खतरा और भी बढ जाता है क्योकि इसमे जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि सरकार बनाते है और विधान मंडल मे बहुमत होने के कारण सरकार जनता के हितो के विरुद्ध कार्य कर सकती है I वे एसी विधिया बना सकते है जिससे जनता के मूल अधिकारों का हनन होता है I संविधान निर्माताओ ने इसलिए इन अधिकारों को संविधान मे समाबिष्ट करके सरकारों की शक्ति से भी परे रखा है ताकि वे अपने बहुमत की शक्ति का दुरुप्रयोग करके इन अधिकारों का अतिक्रमण न कर सके I

यहाँ पर ध्यान देने योग्य बात ये है कि ये अधिकार आत्यान्तिक अधिकार नहीं है I किसी भी समय मे व्यक्तियों के अधिकार पूर्ण और असीमित नहीं होते है I आधुनिक शासन व्यवस्था मे यह अत्यन्त आवश्यक होता है कि जब एक लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना की जाती है तो उसमे नागरिको के मूल अधिकारों पर भी अंकुश लगाया जाता है I भारतीय संविधान द्वारा नागरिको को प्रदत अधिकार अनियंत्रित और अप्रतिबंधित अधिकार नहीं है I संविधान मे इस बात का ध्यान रखा गया है कि व्यक्ति को एसी स्वतंत्रता न प्रदान की जाये जिससे कि समाज मे अराजकता और अव्यवस्था न उत्पन्न हो जाये क्योकि असीमित स्वतंत्रता एक लाइसेंस हो जाती है जो दुसरे व्यक्तिओ के अधिकारों के उपयोग मे बाधा पहुचाती है I संविधान द्वारा प्रदत अधिकारों का उपयोग व्यक्ति समाज मे रहकर करता है और इसके लिए समाज मे शांति व्यवस्था का होना अत्यन्त आवश्यक होता है I जिस समाज मे व्यक्तियों को असीमित अधिकार होते है वहा पर अराजकता और अव्यवस्था का माहौल होता है और व्यक्ति अपनी स्वतंत्रताओ का उपयोग नहीं कर पाता है I अत : यह अत्यन्त आवश्यक है कि व्यक्ति अपने अधिकारों के उपयोग के साथ साथ दूसरो के अधिकारों के प्रति भी आदर का भाव रखे और यह तभी संभव हो सकता है जब व्यक्ति के अधिकारों के उपयोग पर आवश्यक निर्बन्धन हो I कानून व्यक्ति के अधिकारों पर सामाजिक नियंत्रण की वयवस्था करता है I

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