माँ तु कहा करती थी ना
की जिस दिन बाहर जाओगे
उस दिन पता चलेगा तुम्हें।
देख माँ, मैं बाहर तो आ गया
पर अब तक पता नहीं चला की,
कब रातों को सोना होता है,
कब खाना खाना होता है?
कितने बजे घर वापस आना होता है,
और किससे कितना मिलना होता है?
कहने को तो सैकड़ों कमरे वाले
बड़े घर में रहता हूँ मैं,
लेकिन चार दिवारी, एक छत और
6/6 की जमीं के अलावा
कहीं और मेरा कुछ नहीं,
और तो और इनपे भी
पूरा हक नहीं।
कभी करेले से भागे तो कभी
माँ... आज टिंडे का मन नहीं,
कभी दूध में छालि नहीं
तो कभी छालि वाला दूध नही।
मेस में जाते सारी बातें
याद आती हैं।
पर अब तो,
आधा हल्दी आधा पानी
आधी पीली आधी काली
वाली सब्जी और रोटी भी
तड़ तड़ करने वाली
थाली में जब आती हैं,
तो माँ...
मजबुरं खानी पड़ जाती हैं।
पर एक बात बहुत मजेदार है
यहाँ मेरे अंगिनत यार हैं,
किसी की महिला मित्र हो
या किसने हजारों की ली इत्र हो,
सबपे सब बराबर के हकदार हैं।
और जानवरों सा ये लड़ते रहते हैं,
सच बोलूं तो
ये एक जानवरों का ही परिवार हैं।
इन्हें किसी बात का कोई करार नहीं,
तेरे दिये नाम से इन्हें बिल्कुल
प्यार नहीं,
बहरहाल इन सब बातों का
कोई रार नहीं।
बस एक अंतिम बात कहूँगा
माँ... तेरे घर जैसा यहाँ कुछ
भी नहीं है,
पर मेरा ये घर तेरे घर से कम भी
नहीं है।