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एशिया के प्रथम नोबेल पुरस्कार सम्मानित साहित्यकार रविंद्रनाथ ठाकुर ने कहा था की विश्वविद्यालय महापुरुषों के निर्माण के कारखाने हैं और अध्यापक उन्हें बनाने वाले कारीगर । कारीगर होने की बात केवल अध्यापक पर ही लागू नहीं होती। यह बात हर उस व्यक्ति पर लागू होती है जो अध्यापक का औदा रखता है क्योंकि अध्यापक केवल वह नहीं जो हमें भौतिक ज्ञान अवगत करता है। अध्यापक का अर्थ ज्ञानदाता होता है और ज्ञान वह होता है जो जीवन को सरल बनता है ना की क्लिष्ट जीवन को सरल बनाने वाला ज्ञान भौतिक कक्षाओं में बैठकर नहीं मिल सकता, उसे प्राप्त करने के लिए अलग कक्षाएं होती हैं और उन कक्षाओं का अध्यापक कोई भी हो सकता है विश्वविद्यालय में जिसके पास अनुभव की किताब और शिक्षा हो। वह व्यक्ति नया हो सकता है, पुराना हो सकता है, छोटा हो सकता है या बड़ा हो सकता है। यह कक्षाएं खुले गगन के तले लगती हैं, कभी चलते-चलते लग जाती हैं कभी तो बातों ही बातों में लग जाती हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि कौन सा व्यक्ति कब कौन सी बात बोल जाए जो जीवन को सरल बना दे इसका किसी को कुछ पता नहीं। अन्य लोग कह सकते हैं कि ऐसी चीजें तो बाहर चलती राहों पर भी होती है लेकिन यह बात भी कोई नकार नहीं सकता की चलती राहों पर कभी-कभी होती है और यही चीज़ विश्वविद्यालय में रोज होती हैं। मैंने यह चीज़ बहुत बारीकी से देखा है और मेरा भी अनुभव विश्वविद्यालय में भौतिक कक्षाओं से ज्यादा इन्हीं सब कक्षाओं का है।
गत वर्ष 2021 में मैंने विश्वविद्यालय में दाखिला लिया मुझे आज भी याद है मेरी पहली कक्षा भौतिक विज्ञान की थी मैं कक्षा में घुसा और पीछे जाकर बैठ गया। कुछ ही देर में प्रोफेसर आए और उन्होंने अपना लेक्चर शुरू कर दिया। कक्षा बहुत बड़ी उसमें पढ़ने वालों की संख्या भी बहुत अधिक थी तो प्रोफेसर की आवाज पीछे हम लोगों तक सही से नहीं पहुंच पाती थी इतने में ही मेरे बगल में बैठे लड़के ने बोला अरे! अरे..! यह क्या बोले जा रहे हैं कुछ समझ नहीं आता। बोलने के अंदाज़ से पता चलता है कि जनाब मेरे ही क्षेत्र से है और बातचीत होने पर पता भी चल गया कि मेरे ही क्षेत्र से हैं। इनका नाम साहिल सिंह है और ये मेरे विश्वविद्यालय के सबसे पहले मित्र हैं और मित्रता आज कुछ इस कदर है की आज एक दूसरे का कपड़ा पहनने में भी हम लोग संकोच नहीं करते। ऐसे ही कुछ मित्र और बने मनीष, अनिकेत, सिद्धार्थ, अवनीश, अखिलेश ओर भी कई लोग हैं नाम लूँ तो पहला पन्ना भर सकता है। विश्वविद्यालय में पढ़ाई के अलावा एक मित्रता भी अलग अनुभव है इसके ना शुरुआत का पता चलता है ना अंत का, कब कैसे कौन मिल गया। लोग कहते हैं की मित्रता स्कूल वाली ही अच्छी होती है लेकिन मेरा अनुभव यह कहता है की विश्वविद्यालय में सबसे अच्छे मित्र मिलते हैं, जैसे मेरे मित्र।
कुछ दिनों बाद मुझे और साहिल को छात्रावास मिल गया जो विश्वविद्यालय परिसर के अंदर है। हम दोनों तब से अब तक एक ही साथ एक ही कमरे में रहते हैं। छात्रावास की भूमिका विश्वविद्यालय में बहुत अहम होती है ऐसा इसलिए क्योंकि छात्रावा हमें न केवल साथ रहना सिखाता है बल्कि ये कहें की साथ जीना सिखाता है। जहां सारा शहर सो रहा होता है वही छात्रावास में सारे मिलकर किसी एक को परेशान करके परेशानी में कैसे खुद को संतुलित किया जाता है सिखाते हैं। ख़ैर यह बात तो हो गई हंसी मजाक की लेकिन वास्तव में छात्रावास हमें जीना सिखाता है ना बल्कि जीना सिखाता है, व्यवस्था के अभाव में एक दूसरे का सहयोग करते हुए जीना सिखाता है। छात्रावास की महत्वता ऐसे भी देख सकते हैं किसी एक छात्रावास में औसत 100 लोग रहते हैं, वे 100 लोग न जाने देश के किस कोने से आए होते हैं देखते ही देखते किसकी टोपी किसके सर और किसकी लूंगी किसके कमर बंध जाती है पता नहीं चलता। जो देश के सबसे बड़े एक्य और एक दूसरे के प्रति प्रेम को दर्शाता है।
जैसा कि मैंने पहले ही रविंद्रनाथ ठाकुर जी के विचारों की बात की विश्वविद्यालय महापुरुषों के निर्माण के कारखाने हैं। एक पुरुष महापुरुष तभी बन पाता है जब उसके कृत्य एक अच्छे समाज के निर्माण के काम आए चाहे वह प्रत्यक्ष हो या अप्रत्यक्ष विश्वविद्यालय से पढ़ा व्यक्ति अपने सामर्थ अनुसार काम कर रहे हैं हालांकि काम सब करते हैं लेकिन विश्वविद्यालय से पढ़े लोगों की कार्यशैली, सोचने का तरीका आम व्यक्ति से भिन्न होता है और वह इसलिए होती है क्योंकि उसने देश के लगभग हर समाज को देखा और परखा होता है और उसके किस कार्य से किस समाज को लाभ और हानि हो सकता है यह बात वह भली भांति जानता है। मुझे यह जानकर दुख होता है की समाज में न जाने कितने ऐसे लोग हैं जो विश्वविद्यालय तक नहीं आ पाते। उन्हें उनकी गरीबी अपनी और खींच लेती है लेकिन यह बात भी सत्य है कि इसमें बदलाव हो रहा है। आने वाले समय में यह न्यूनतम हो सकता है और ऐसा तभी संभव है जब समाज का हर वर्ग साथ आकर गरीबी से लड़ेगा।