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शुद्ध प्रेम अर्थात प्रेम तब होता है जब हम सभी विकारों से विकाररहित होकर किसी की उपासना या स्मृति करते है
व्यवहारिक जीवन का प्रेम विकारसंगत होता है , विकाररहीत नही होता। व्यवहारिक जीवन का प्रेम आकर्षण, भावना संबंधित, इत्यादि विकारों से संगत होता है, जैसे किसी को देख कर आकर्षित होना की यह वही है जिसकी हम तलाश थी की जैसा आपका मन ढूंढ रहा था की वो सुंदर हो, सुशील दिखे, सलवार समीज पहने , मंदिर जाए , एक बिंदी लगाए इत्यादि, या फिर स्टाइलिश रहे जींस पहने, चस्मे लगाए, क्यूट दिखे , बाइक चलाए और में उसके पीछे बैठू इत्यादि। लेकिन ये सारे जब सामने किसी व्यक्ति में हम देखते है तो हम उससे आकर्षित हो जाते है, अर्थात ये आपके मन के विकार से उत्पन्न बस एक भावना से संबंधित है, न की प्रेम।
अब दूसरा उदाहरण लेते है , जैसे कोई व्यक्ति है जिसे बहुत ही जल्दी किसी भी बात पर तीव्र गुस्सा आता हो, तो उसके मन में हमेशा से आकर्षण वाली भावना नही रहेगी की वह सुंदर हो बल्कि वो अपने लिए ऐसी प्रेमिका की तलाश करेगा जो उसके गुस्से को झेल सके या उसे संभाल सके। इस प्रकार की भावना से बना संबंध भी प्रेम नही हो सकता क्योंकि इसमें भी मन की विकार की भावना जुड़ी है।
तब यह सवाल आके खड़ा होता है को प्रेम है क्या?
तो जो मन से नही बल्कि जो आपके बुद्धि की छमता को बढ़ा दे वही प्रेम है क्योंकि बुद्धि को आकर्षण, गुस्सा , अहंकार इत्यादि कोई भी विकार नही बांध सकते , अर्थात बुद्धि स्वतंत्र होता है और स्वतंत्र होकर सोचता है और विचार करता है, अर्थात शुद्ध प्रेम पूजा है , जो बस एक नित्य कर्म की तरह करते है, प्रेम अपने कर्म से है जो हम करते है, प्रेम स्वयं से है क्योंकि हम स्वयं से जुड़ने के लिए किसी विकार की जरूरत नहीं होती, प्रेम उपासना में है, प्रेम स्मृति में है।