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बढ़ती धुंद में अपना वजूद वो खोता रहा,
हर सांस की जगह वो सिसकियाँ लेने को मजबूर होता रहा

नीले आसमान की इक झलक पाने को बेचैन होता रहा,
घूप के इक कतरे की गर्मी महसूस करने का फ़िज़ूल इंतज़ार करता रहा

खुली हवा में उड़ान भरने की बस वो सोचता ही रहा,
बढ़ता प्रदूषण उसकी इस चाहत का नित गाला घोंटता रहा

गले में खरखराहट औऱ आँखों की चिनचिनाहट वो बस झेलता रहा,
चेहरे पर जमी प्रदूषण की कालिख को नित पोंछता रहा

राज्य औऱ केंद्र सरकार से मदद को गुहार हर बरस की तरह अब भी लगा रहा,
चुनाव औऱ मतों की होड़ के गुबार हमेशा की तरह उसकी इस गुहार की धज्जियां उड़ा रहा

सुन्दर भवन, अट्टालिकाएँ औऱ यह विशाल पथ से ही बस संवारा जाता रहा,
इनमे जीवन फूंकने वालों को पल पल प्रदूषण में घुंटते फुंकते वो देख रहा

धुँए औऱ कालिख की परतों में बेबस हो अपने को परत दर परत दफ़न होते वो देख रहा,
ज़हरीली हवाओं में पल पल दम अपना वो तोड़ रहा

देश की राजधानी होने का फख्र का प्रदूषण की दम घोंटती चादर ने नामो- निशाँ ही मिटा दिया,
हाँ, मेरा शहर रोता रहा, अपने आंसूओं से मृत्युदायी प्रदूषण की परतों को धोने की व्यर्थ चेष्ठा कर रहा

मेरा शहर अब चीख-चीखकर दिन -रात रो रहा
बचाओ इस प्रदूषण के मौत के साये से, मानो अपनी हर सिसकी में कह रहा

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